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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
से पउमे अण्णेहिं तिहिं पउमवरपरिक्खेवेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, तं जहाअब्धिंतरेणं मज्झिमेणं बाहिरएणं । अब्धिंतरए णं पउमपरिक्खेवे बत्तीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमए णं पउमपरिक्खेवे चत्तालीसं पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, बाहिरए णं पउमपरिक्खेवे अडयालीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, एवामेव सपुव्वावरेणं एगं पउमकोडी वीसं च पउमसयसहस्सा भवतीति मक्खाया।
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सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ - णीलवंतद्दहे णीलवंतद्दहे ?
गोयमा ! नीलवंतद्दहे णं दहे तत्थ जाई उप्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताइं नीलवंतप्पभाई नीलवंतद्दहकुमारे य सो चेव गमो जाव नीलवंतद्दहे नीलवंतद्दहे ।
[१४९] (२) उस भवन में बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है । वह आलिंगपुष्कर (मुरजमृदंग) पर चढ़े हुए चमड़े के समान समतल है आदि वर्णन करना चाहिए। यह वर्णन मणियों के वर्ण, गंध, और स्पर्श पर्यन्त पूर्ववत् करना चाहिए। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में एक मणिपीठिका है, जो पांच सौ धनुष की लम्बी चौड़ी है और ढाई सौ धनुष मोटी है और सर्वमणियों की बनी हुई है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवशयनीय है, उसका वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए ।
वह कमल दूसरे एक सौ आठ कमलों से सब ओर से घिरा हुआ है । वे कमल उस कमल से ऊँचे प्रमाण वाले हैं। वे कमल आधा योजन लम्बे-चौड़े और इससे तिगुने से कुछ अधिक परिधि वाले हैं। उनकी मोटाई एक कोस की है। वे दस योजन पानी में ऊँडे (गहरे ) हैं और जलतल से एक कोस ऊँचे हैं। जलांत से लेकर ऊपर तक समग्ररूप में वे कुछ अधिक (एक कोस अधिक) दस योजन के हैं। उन कमलों का स्वरूप वर्णन इस प्रकार है- वज्ररत्नों के उनके मूल हैं, यावत् नानामणियों की पुष्करस्तिबुका है । कमल की कर्णिकाएँ एक कोस लम्बी-चौड़ी हैं और उससे तिगुने से अधिक उनकी परिधि है । आधा कोस की मोटाई है, सर्व कनकमयी हैं, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । उन कर्णिकाओं के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावत् मणियों के वर्ण, गंध और स्पर्श की वक्तव्यता कहनी चाहिए ।
उस कमल के पश्चिमोत्तर में, उत्तर में और उत्तरपूर्व में नीलवंतद्रह के नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार पद्म (पद्मरूप आसन) कहे गये हैं। इसी तरह सब परिवार के योग्य पद्मों (पद्मरूप आसनों) का कथन करना चाहिए ।
वह कमल अन्य तीन पद्मवरपरिक्षेप (परिवेश) से सब ओर से घिरा हुआ है । वे परिवेश हैंआभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य । आभ्यन्तर पद्म परिवेश में बत्तीस लाख पद्म हैं, मध्यम पद्मपरिवेश में चालीस लाख पद्म हैं और बाह्य पद्मपरिवेश में अड़तालीस लाख पद्म हैं। इस प्रकार सब पद्मों की संख्या एक करोड़ बीस लाख कही गई है।
हे भगवन् ! नीलवंतद्रह नीलवंतद्रह क्यों कहलाता है ?
गौतम ! नीलवंतद्रह में यहाँ वहाँ स्थान स्थान पर नीलवर्ण के उत्पल कमल यावत् शतपत्र - सहस्रपत्र कमल खिले हुए हैं तथा वहाँ नीलवंत नामक नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज महर्द्धिक देव रहता है, इस कारण