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________________ प्रथम प्रतिपत्ति: स्वरूप और प्रकार ] सर्वथा अलग मानना प्रत्यक्षबाधित है। हम देखते हैं कि हार आदि के रूपपरमाणुओं में स्पर्श की उपलब्धि भी साथ-साथ होती है और घृतादि रस के परमाणुओं में रूप और गन्ध की भी उपलब्धि होती है। कपूर आदि के गन्ध परमाणुओं में रूप की उपलब्धि भी निरन्तर रूप से होती है। इसलिए रूप, रस, गन्ध और स्पर्श परस्पर अभिन्न हैं । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श वाले रूपी अजीव हैं और जिनमें रूप, रस, गन्ध स्पर्श नहीं है वे अरूपी अजीव हैं। [७ अरूपी अजीव इन्द्रियप्रत्यक्ष से नहीं जाने जाते हैं। वे आगमप्रमाण से जाने जाते हैं । अरूपी अजीव के दस भेद कहे गये हैं - १. धर्मास्तिकाय, २ . धर्मास्तिकाय का देश, ३ . धर्मातिकाय के प्रदेश, ४. अधर्मास्तिकाय, ५. अधर्मास्तिकाय का देश, ६. अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, ७. आकाशास्तिकाय, ८. आकाशास्तिकाय का देश, ९. आकाशास्तिकाय के प्रदेश और १०. अद्धासमय। उक्त भेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार समझने हेतु सूत्रकार ने सूचना की है। १. धर्मास्तिकाय - स्वतः गतिपरिणत जीवों और पुद्गलों को गति करने में जो सहायक होता है, निमित्तकारण होता है वह धर्मास्तिकाय है । जिस प्रकार मछली को तैरने में जल सहायक होता है, वृद्ध को चलने में दण्ड सहायक होता है, नेत्र वाले व्यक्ति के ज्ञान में दीपक सहायक होता है, उसी तरह जीव और पुद्गलों की गति में निमित्तकारण के रूप में धर्मास्तिकाय सहायक होता है । ' यह ध्यान देने योग्य है कि धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलो को गति करने में प्रेरक नहीं होता है अपितु सहायक मात्र होता है। जैसे जल मछली को चलाता नहीं, दण्ड वृद्ध को चलाता नहीं, दीपक नेत्रवान को दिखाता नहीं अपितु सहायक मात्र होता है। वैसे ही धर्मास्तिकाय गति में प्रेरक न होकर सहायक होता है। धर्मास्तिकाय की सिद्धि धर्मास्तिकाय का अस्तित्व जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य किन्हीं भी दार्शनिकों ने स्वीकार नहीं किया है । अतएव सहज जिज्ञासा होती है कि धर्मास्तिकाय के अस्तित्व में क्या प्रमाण हैं ? इसका समाधान करते हुए जैन दार्शनिकों और शास्त्रकारों ने कहा है कि- गतिशील जीवों और पुद्गलों की गति को नियमित करने वाले नियामक तत्त्व के रूप में धर्मास्तिकाय को मानना आवश्यक है। यदि ऐसे किसी नियामक तत्त्व को न माना जाय तो इस विश्व का नियत संस्थान घटित नहीं हो सकता । जड़ और चेतन द्रव्य की गतिशीलता अनुभवसिद्ध है । यदि वे अनन्त आकाश में बेरोकटोक चलते ही जावें तो इस लोक का नियत संस्थान बन ही नहीं सकेगा। अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव अनन्त आकाश में बेरोकटोक संचार करते रहेंगे तो वे इस तरह से अलग-थलग हो जावेंगे कि उनका मिलना और नियत सृष्टि के रूप में दिखाई देना असम्भव हो जावेगा । इसलिए जीव और पुद्गलों की सहज गतिशीलता को १. परिणामी गतेर्धर्मो भवेत्पुद्गलजीवयोः । अपेक्षाकारणाल्लोके मीनस्येव जलं सदा ॥
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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