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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
नियमित करने वाला नियामक तत्त्व धर्मास्तिकाय स्वीकार किया गया है। धर्मास्तिकाय का अस्तित्व मानने पर ही लोक- अलोक का विभाग संगत हो सकता है।
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सहज गतिस्वभाव वाले होने पर भी जीव और पुद्गल लोक से बाहर अलोक में नही जा सकते। परमाणु जघन्य से परमाणुमात्र क्षेत्र से लगाकर उत्कृष्टत: चौदह राजुलोक प्रमाण क्षेत्र में गति कर सकता है । इससे एक प्रदेशमात्र अधिक क्षेत्र में उसकी गति नहीं हो सकती। इसका नियामक कौन है ? आकाश तो इस गति का नियामक नहीं हो सकता क्योंकि आकाश तो अलोक में भी समान रूप से है । अतएव जो इस गतिपरिणाम का नियामक है वह धर्मास्तिकाय है । जहाँ धर्मास्तिकाय है वहीं जीव- पुद्गलों की गति है और जहाँ धर्मास्तिकाय नहीं है वहाँ जीव- पुद्गलों की गति नहीं होती । धर्मास्तिकाय लोकाकाश में ही है इसीलिए जीवों और पुद्गलों की गति लोकाकाश तक ही सीमित है। इस प्रकार धर्मास्तिकाय के गतिसहायक रूप कार्य से उसके अस्तित्व की सिद्धि होती है ।
सकल धर्मास्तिकाय एक अखण्ड अवयवी द्रव्य है, वह स्कन्धरूप है। उसके असंख्यात प्रदेश अवयव रूप हैं । अवयवों का तथारूप संघात, परिणाम विशेष ही अवयवी है। जैसे तन्तुओं का आतानवितान रूप संघातपरिणाम 'पट है। उनसे भिन्न पट और कुछ नहीं है । अवयव और अवयवी कथंचित् भिन्नाभिन्न हैं ।
२. धर्मास्तिकाय का देश-धर्मास्तिकाय के बुद्धिकल्पित द्विप्रदेशात्मक, त्रिप्रदेशात्मक आदि विभाग को धर्मास्तिकाय का देश कहते है । वास्तव में तो धर्मास्तिकाय एक अखण्ड द्रव्य । उसके देश-प्रदेश आदि विभाग बुद्धिकल्पित ही हैं।
३. धर्मास्तिकाय के प्रदेश - स्कन्ध के ऐसे सूक्ष्म भाग को, जिसका फिर अंश न हो सके, प्रदेश कहते हैं । 'प्रदेशा निर्विभागा भागाः' अर्थात् स्कन्धादि के अविभाज्य निरंश अंश को प्रदेश कहते हैं । ये प्रदेश असंख्यात हैं अर्थात् लोकाकाशप्रमाण हैं । ये प्रदेश केवल बुद्धि से कल्पित किये जा सकते है । वस्तुतः ये स्कन्ध से अलग नहीं हो सकते।
इस प्रकार धर्मास्तिकाय के तीन भेद बताये गये हैं- स्कन्ध, देश और प्रदेश |
प्रश्न हो सकता है कि धर्मद्रव्य को अस्तिकाय क्यों कहा गया है ? इसका समाधान है कि यहाँ 'अस्ति' का अर्थ प्रदेश है और 'काय' का अर्थ संघात या समुदाय है। प्रदेशों के समुदाय को अस्तिकाय कहा जाता है। धर्मद्रव्य असंख्यात प्रदेशों का समूहरूप है अतएव उसे अस्तिकाय कहा जाता है।
१. तन्त्वादिव्यतिरेकेण, न पटाद्युपलम्भनम् ।
तन्त्वादयोविशिष्टा हि पटादिव्यपदेशिनः ॥
२. अस्तयः प्रदेशास्तेषां कायः संघातः । 'गण काए य निकाए खंधे वग्गे य रासी य' इति वचनात् अस्तिकाय: प्रदेशसंघातः ।
- मलयगिरिवृत्ति