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[जीवाजीवाभिगमसूत्र हैं । इससे यह ज्ञापित किया गया है कि यदि मध्यस्थ, बुद्धिमान और तत्त्वजिज्ञासु प्रश्नकर्ता प्रश्न करे तो ही उसके समाधान हेतु भगवान् तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट तत्त्व की प्ररूपणा करनी चाहिए, अन्य अजिज्ञासुओं के समक्ष नहीं।
इन सूत्रों में सामान्य रूप से प्रश्न और उत्तर दिये गये हैं। इनके मूलपाठ में किसी गौतमादि विशिष्ट प्रश्रकर्ता का उल्लेख नहीं और न ही उत्तर में गौतम आदि संबोधन है। इसका तात्पर्य यह है कि सूत्र-साहित्य का अधिकांश भाग गणधरों के प्रश्न और भगवान् वर्धमान स्वामी के उत्तर रूप में रचा गया है और थोड़ा भाग ऐसा है जो अन्य जिज्ञासुओं द्वारा पूछा गया है और स्थविरों द्वारा उसका उत्तर दिया गया है। पूरा का पूरा श्रुत-साहित्य गणधर-पृष्ट और भगवान् द्वारा उत्तरित ही नहीं है। प्रस्तुत सूत्र भी सामान्य तथा अन्य जिज्ञासुओं द्वारा पृष्ट और स्थविरों द्वारा उत्तरित है।
प्रथम प्रश्न में जीवाजीवाभिगम का स्वरूप पूछा गया है। उत्तर के रूप उसके भेद बताकर स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। जीवाजीवाभिगम जीवाभिगम और अजीवाभिगम स्वरूप वाला है। अभिगम का अर्थ परिच्छेद, बोध या ज्ञान है । जीवद्रव्य का ज्ञान जीवाभिगम है और अजीव द्रव्यों का ज्ञान अजीवाभिगम है। इस विश्व में मूलतः दो ही तत्त्व हैं-जीव तत्त्व और अजीव तत्त्व। अन्य सब इन दो ही तत्त्वों का विस्तार है। ये दोनों मूल तत्त्व द्रव्य की अपेक्षा तुल्य बल वाले हैं, यह ध्वनित करने के लिए दोनों पदों में 'च' का प्रयोग किया गया है। जीव और अजीव दोनों भिन्न जातीय हैं और स्वतन्त्र अस्तित्व वाले हैं। जीव और अजीव तत्त्व का सही-सही भेद-विज्ञान करना अध्यात्मशास्त्र का मुख्य विषय है। इसीलिए शास्त्रों में जीव और अजीव के स्वरूप के विषय में विस्तार से चर्चा की गई है। जीव और अजीव के भेद-ज्ञान से ही सम्यग्दर्शन होता है और फिर सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र से मुक्ति होती है। अतएव जीवाभिगम और अजीवाभिगम परम्परा से मुक्ति का कारण है।
सूत्रकार ने पहले जीवाभिगम कहा और बाद में अजीवाभिगम कहा है। 'यथोद्देशस्तथा निर्देशः' अर्थात् उद्देश के अनुसार ही निर्देश-कथन करना चाहिए- इस न्याय से पहले जीवाभिगम के विषय में प्रश्नोत्तर किये जाने चाहिए थे, परन्तु ऐसा न करते हुए पहले अजीवाभिगम के विषय में प्रश्नोत्तर किये गये हैं। इसका कारण यह है कि जीवाभिगम में वक्तव्य-विषय बहुत है और अजीवाभिगम में अल्पवक्तव्यता है। अतः 'सूचिकटाह' न्याय से पहले अजीवाभिगम के विषय में प्रश्रोत्तर है।
अजीवाभिगम दो प्रकार का है-१. रूपी-अजीवाभिगम और अरूपी-अजीवाभिगम। सामान्यतया जिसमें रूप पाया जाय उसे रूपी कहते है। परन्तु यहाँ रूपी से तात्पर्य रूप, रस, गंध, स्पर्श, चारों से है। उपलक्षण से रूप के साथ रसादि का भी ग्रहण हो जाता है, क्योंकि ये चारों एक दूसरे को छोड़कर नहीं रहते। प्रत्येक परमाणु में रूप, रस, गन्ध स्पर्श पाये जाते हैं। इससे इस बात का खण्डन हो जाता है कि रूप के परमाणु अलग ही हैं और रसादि के परमाणु सर्वथा अलग ही हैं। रूप-रसादि के परमाणुओं को
१. कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः।
एकरसगंधवर्णो द्विस्पर्शः कार्यलिंगश्च ॥