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________________ २७०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतम ! पांच समुद्घात कहे गये हैं, यथा-वेदनासमुद्घात यावत् तैजससमुद्घात । भगवन् ! वे जीव मारणांतिकसमुद्घात से समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर मरते हैं? गौतम ! समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। भगवन् ! वे जीव मरकर अनन्तर कहाँ उत्पन्न होते हैं ? कहाँ जाते हैं ? क्या नैरयिकों में पैदा होते हैं, तिर्यक्योनिकों में पैदा होते हैं ? आदि प्रश्न करना चाहिए। ___ गौतम ! जैसे प्रज्ञापना के व्युत्क्रान्तिपद में कहा गया है, वैसा यहाँ कहना चाहिए। (दूसरी प्रतिपत्ति में वह कहा गया हैं, वहाँ देखें।) हे भगवन् ! उन जीवों की कितने लाख योनिप्रमुख जातिकुलकोटि कही गई हैं ? गौतम ! बारह लाख योनिप्रमुख जातिकुलकोटि कही गई हैं । विवेचन-खेचर (पक्षियों) में पाये जाने वाले लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग आदि द्वारों की स्पष्टता मूल पाठ से ही सिद्ध है। व्युत्क्रान्तिपद से उद्वर्तना समझनी चाहिए, ऐसी सूचना यहाँ की गई है। प्रज्ञापनासूत्र में व्युत्क्रान्तिपद है और उसमें जो उद्वर्तना कही गई है वह यहाँ समझनी है। इसी जीवाभिगम सूत्र की द्वितीय प्रतिपत्ति में उसको बताया गया है सो जिज्ञासु वहाँ भी देख सकते हैं। इस सूत्र में खेचर की योनिप्रमुख जातिकुलकोडी बारह लाख कही है। जातिकुलयोनि का स्थूल उदाहरण पूर्वाचार्यों ने इस प्रकार बताया है-जाति से भावार्थ है तिर्यग्जाति, उसके कुल हैं-कृमि, कीट, वृश्चिक आदि। ये कुल योनिप्रमुख हैं अर्थात् एक ही योनि में अनेक कुल होते हैं, जैसे छः गण योनि में कृमिकुल, कीटकुल, वृश्चिककुल आदि। अथवा 'जातिकुल' को एक पद माना जा सकता है। जातिकुल और योनि में परस्पर यह विशेषता है कि एक ही योनि में अनेक जातिकुल होते हैं-यथा एक ही छःगण योनि में कृमिजातिकुल, कीटजातिकुल और वृश्चिकजातिकुल इत्यादि। इस प्रकार एक ही योनि में अवान्तर जातिभेद होने से अनेक योनिप्रमुख जातिकुल होते हैं। द्वारों के सम्बन्ध में संग्रहणी गाथा इस प्रकार है जोणीसंगह लेस्सा दिट्ठी नाणे य जोग उवओगे। उववाय ठिई समुग्घाय चयणं जाई-कुलविही उ॥ पहले योनिसंग्रह, फिर लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, उपपात, स्थिति, समुद्घात, च्यवन, जातिकुलकोटि का इस सूत्र में प्रतिपादन किया गया है। ९७.[२] भुयंगपरिसप्पथलयर पंचिंदिय तिरिक्खयोणियाणं भंते ! कतिविहे जोणीसंगहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते, तं जहा-अंडया, पोयया संमुच्छिमा; एवं जहा खहयराणं तहेव ; णाणतं जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं पुव्यकोडी। उव्वट्टित्ता दोच्चं पुढविं गच्छंति, णव जातिकुलकोडी जोणीपमुह सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं, सेसं तहेव।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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