________________
३८६ ]
[जीवाजीवाभिगमसूत्र
इकतीस योजन एक कोस ऊंचे हैं, पन्द्रह योजन ढाई कोस लम्बे-चौड़े हैं। शेष वर्णन समुद्गक पर्यन्त विजयद्वार के समान ही कहना चाहिए, विशेषता यह है कि वे सब बहुवचन रूप कहने चाहिए ।
उस विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर १०८ चक्र से चिह्नित ध्वजाएँ यावत् १०८ श्वेत और चार दांत वाले हाथी से अंकित ध्वजाएँ कही गई हैं। ये सब आगे-पीछे की ध्वजाएँ मिलाकर विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर एक हजार अस्सी ध्वजाएँ कही गई हैं।
विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर ( उन द्वारों के आगे) सत्रह भौम (विशिष्टस्थान) कहे गये हैं। उन भौमों के भूमिभाग और अन्दर की छतें पद्मलता आदि विविध चित्रों से चित्रित हैं।
उन भौमों के बहुमध्य भाग में जो नौवें भौम हैं, उनके ठीक मध्यभाग में अलग-अलग सिंहासन कहे गये हैं । यहाँ सिंहासन का पूर्ववर्णित वर्णनक कहना चाहिए यावत् सिंहासनों में मालाएँ लटक रही हैं। शेष भौमों में अलग-अलग भद्रासन कहे गये हैं । उन द्वारों के ऊपरी भाग सोलह प्रकार के रत्नों से शोभित हैं, आदि वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए यावत् उन पर छत्र पर छत्र लगे हुए हैं। इस प्रकार सब मिलाकर विजया राजधानी के पांच सौ द्वार होते हैं। ऐसा मैने और अन्य तीर्थंकरों ने कहा है ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में विजया राजधानी का वर्णन करते हुए अनेक स्थानों पर विजयद्वार का अतिदेश किया गया है। 'जहा विजयदारे' कहकर यह अतिदेश किया गया है । इस अतिदेश के पाठों में विभिन्न प्रतियों में विविध पाठ हैं। श्री मलयगिरि की वृत्ति के पढ़ने पर स्पष्ट हो जाता है कि उन आचार्यश्री के सम्मुख कोई दूसरी प्रति थी जो अब उपलब्ध नहीं है। क्योंकि इस सूत्र की वृत्ति में आचार्यश्री ने उल्लेख किया है - ' शेषमपि तोरणादिकं विजयद्वारवदिमाभिर्वक्ष्यमाणाभिर्गाथाभिरनुगन्तव्यम्, ता एव गाथा आह'तोरणे', इत्यादि गाथात्रयम्' अर्थात् शेष तोरणादिक का कथन विजयद्वार की तरह इन तीन गाथाओं से जानना चाहिए। वे गाथाएँ इस प्रकार हैं 'तोरण' आदि । वृत्तिकार ने तीन गाथाओं की वृत्ति की है इससे सिद्ध होता है कि उनके सन्मुख जो प्रति थी उसमें उक्त तीन गाथाएँ मूल पाठ में होनी चाहिए। वर्तमान में उपलब्ध प्रतियों में ये तीन गाथाएँ नहीं मिलती हैं । वृत्ति के अनुसार उन गाथाओं का भावार्थ इस प्रकार है
उस विजया राजधानी के द्वारों में प्रत्येक नैषेधिकी में दो-दो तोरण कहे गये हैं। उन तोरणों के ऊपर प्रत्येक पर आठ-आठ मंगल हैं, उन तोरणों पर कृष्ण चामर आदि से अंकित ध्वजाएँ हैं। उसके बाद तोरणों के आगे शालभंजिकाएँ हैं, तदनन्तर नागदंतक हैं। नागदन्तकों में मालाएँ हैं । तदनन्तर हयसंघाटादि संघाटक हैं, तदनन्तर हयपंक्तियाँ, तदनन्तर हयवीथियाँ आदि, तदनन्तर हयमिथुनकादि, तदनन्तर पद्मलतादि लताएँ, तदनन्तर चतुर्दिक स्वस्तिक, तदनन्तर चन्दनकलश, तदनन्तर भृंगारक, तदनन्तर आदर्शक, फिर स्थाल, फिर पात्रियाँ, फिर सुप्रतिष्ठक, तदनन्तर मनोगुलिका, उनमें जलशून्य वातकरक (घड़े), तदनन्तर रत्नकरण्डक, फिर हयकण्ठ, गजकण्ठ, नरकण्ठ, किन्नर - किंपुरुष - महोरग - गन्धर्व - वृषभ - कण्ठ क्रम से कहने चाहिये । तदनन्तर पुष्पचंगेरियां कहनी चाहिए। फिर पुष्पादि पटल, सिंहासन, छत्र, चामर, तैलसमुद्गक आदि कहने चाहिए और फिर ध्वजाएँ कहनी चाहिए। ध्वजाएँ का चरम सूत्र है-उस विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर