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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
इन जीवों का आहार नियम से छह दिशाओं के पुद्गलों का है। इनका उपपात (अन्य जन्म से आकर उत्पत्ति) नैरयिक, देव और असंख्यात वर्ष की आयुवालों को छोड़कर शेष तिथंच और मनुष्यों से होता है। इनकी स्थित जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से बारह वर्ष की है।
ये मारणांतिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। हे भगवन् ! ये मरकर कहाँ जाते हैं ?
गौतम ! नैरयिक, देव और असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंचों मनुष्यों को छोड़कर शेष तिर्यंचों मनुष्यों में जाते हैं। अतएव ये जीव दो गति में जाते हैं, दो गति से आते हैं, प्रत्येकशरीरी है और असंख्यात हैं।
यह द्वीन्द्रिय जीवों का वर्णन हुआ।
विवेचन-द्वीन्द्रिय जीवों के प्रकार बताते हुए सूत्रकार ने पुलाकृमि यावत् समुद्रलिक्षा कहा है। यावत् शब्द से यहाँ वे सब जीव-प्रकार ग्रहण करने चाहिए जो प्रज्ञापनासूत्र के द्वीन्द्रियाधिकार में बताये गये हैं।
परिपूर्ण प्रकार इस प्रकार हैपुलाकृमि-मल द्वार में पैदा होने वाले कृमि । कुक्षिकृमि-कुक्षि (उदर) में उत्पन्न होने वाले कृमि। गण्डोयलक-गिंडोला।
गोलोम, नुपूर, सौमंगलक, वंशीमुख, सूचिमुख, गोजलौका, जलौका (जोंक), जालायुष्क, ये सब लोकपरम्परानुसार जानने चाहिए।
शंख-समुद्र में उत्पन्न होने वाले शंख। शंखनक-समुद्र में उत्पन्न होने वाले छोटे-छोटे शंख। घुल्ला-घोंघा। खुल्ला-समुद्री शंख के आकार के छोटे शंख।
वराटा-कौडियां । सौत्रिक, मौलिक, कल्लुयावास, एकावर्त, द्वि-आवर्त, नन्दिकावर्त,शम्बूक, मातृवाह, ये सब विभिन्न प्रकार के शंख समझने चाहिए।
सिप्पिसंपुट-सीपडियाँ । चन्दनक-अक्ष (पांसा)
समुद्रलिक्षा-कृमिविशेष। ये सब तथा अन्य इसी प्रकार के मृतकलेवर में उत्पन्न होने वाले कृमि आदि द्वीन्द्रिय समझने चाहिए। ये द्वीन्द्रिय जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के
हैं।
शरीरादि २३ द्वारों की विचारणा इस प्रकार जाननी चाहिएशरीरद्वार-इनके तीन शरीर होते हैं-औदारिक, तैजस् एवं कार्मण। अवगाहनाद्वार-इन जीवों की शरीर-अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण