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प्रथम प्रतिपत्ति: द्वीन्द्रिय वर्णन]
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और उत्कृष्ट से बारह योजन की होती हैं।
संहननद्वार-इन जीवों के छेदवर्ति-सेवार्त संहनन होता है। यहाँ मुख्य संहनन ग्रहण करना चाहिए, औपचारिक नहीं। क्योंकि इन जीवों के अस्थियाँ होती हैं।
संस्थानद्वार-इन जीवों के हुंडसंस्थान होता है। कषायद्वार-इनमें चारों कषाय पाये जाते हैं। संज्ञाद्वार-इनमें चारों आहारादि संज्ञाएँ होती हैं। लेण्याद्वार-इन जीवों में आरम्भ की कृष्ण, नील, कापोत, ये तीन लेश्याएँ पायी जाती हैं। इन्द्रियद्वार-इनके स्पर्शन और रसन रूप दो इन्द्रियाँ हैं। समुद्घातद्वार-इनमें तीन समुद्घात पाये जाते हैं-वेदना, कषाय और मारणांतिक समुद्घात। संज्ञाद्वार-ये जीव संज्ञी नहीं होते । असंज्ञी होते हैं।
वेदद्वार-ये जीव नपुंसकवेद वाले होते हैं । ये सम्मूर्छिम होते हैं और जो संमूर्छिम होते हैं वे नपुंसक ही होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-नारक और संमूर्छित नपुंसकवेदी होते हैं।'
पर्याप्तिद्वार-इन जीवों के पांच पर्याप्तियाँ पर्याप्त जीवों की अपेक्षा होती हैं और पांच अपर्याप्तियाँ अपर्याप्त जीवों की अपेक्षा होती हैं।
दृष्टिद्वार-ये जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, लेकिन मिश्रदृष्टि वाले नहीं होते। इसकी स्पष्टता इस प्रकार है
जिस प्रकार घण्टा को बजाये जाने पर महान् शब्द होता है और वह शब्द क्रमशः हीयमान होता हुआ लटकन तक ही रह जाता है, इसी तरह सम्यक्त्व से गिरता हुआ जीव क्रमशः गिरता-गिरता सास्वादन सम्यक्त्व की स्थिति में आ जाता है और ऐसे सास्वादन सम्यक्त्व वाले कतिपय जीव मरकर द्वीन्द्रियों में भी उत्पन्न होते हैं। अतः अपर्याप्त अवस्था में थोड़े समय के लिए सास्वादन सम्यक्त्व का सम्भव होने से उनमें सम्यग्दृष्टित्व पाया जाता है। शेषकाल में मिथ्यादृष्टिता है तथा भाव-स्वभाव से तथारूप परिणाम न होने से उनमें मिश्रदृष्टिता नहीं पाई जाती तथा कोई मिश्रदृष्टि वाला उनमें उत्पन्न नहीं होता। क्योंकि मिश्रदृष्टि वाला जीव उस स्थिति में नहीं मरता' यह आगम वाक्य है । २ ____दर्शनद्वार-इनमें अचक्षुदर्शन ही पाया जाता है, चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन नहीं।
ज्ञानद्वार-ये ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। सास्वादन सम्यक्त्व की अपेक्षा ज्ञानी हैं। ये ज्ञानी मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी हैं। मिथ्यादृष्टित्व की अपेक्षा अज्ञानी हैं। ये अज्ञानी मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी
१. नारकसंमूर्छिनो नपुंसकानि । -तत्त्वार्थ सू. अ. २ सू. ५० २. 'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं' इति वचनात् ।