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________________ २] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान प्राप्त करते हैं । अतएव जिनमत को जिनानुलोम विशेषण से अलंकृत किया गया है। जिणप्पणीयं-यह जैनसिद्धान्त जिनप्रणीत है। अर्थात् तीर्थाधिपति श्री वर्धमान स्वामी द्वारा कथित है। केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर श्री वर्धमान स्वामी ने बीजबुद्धि आदि परम गुण कलित गौतमादि गणधरों को समस्तार्थ-संग्राहक मातृकापदत्रय 'उप्पन्ने इ वा, विगमे इ वा, धुवे इ वा' का कथन किया। इन तीन मातृका पदों का अवलम्बन लेकर गौतमादि गणधरों ने द्वादशांगी की रचना की। अतएव यह जिनमत जिनप्रणीत है। इस कथन से यह बताया गया है कि आगम सूत्र की अपेक्षा पौरुषेय ही है, अपौरुषेय नहीं। आगम शब्दरूप है और पुरुष-व्यापार के बिना वचनों का उच्चारण नहीं हो सकता। पुरुष-व्यापार के बिना शब्द आकाश में ध्वनित नहीं होते। मीमांसक मत वाले आगम को अपौरुषेय मानते हैं। उनकी यह मान्यता इस विशेषण द्वारा खण्डित हो जाती है। जिणपरूवियं-यह जिनमत जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित किया गया है। इस विशेषण द्वारा यह बताया गया है कि भगवान् वर्धमान स्वामी ने इस सिद्धान्त का इस प्रकार प्ररूपण किया कि श्रोताजन उसके तत्त्वार्थ को भलीभाँति समझ सकें। यहाँ कोई शंका कर सकता है कि यह अध्ययन या प्रकरण अविज्ञात अर्थ वाला ही रहने वाला है चाहे वह सर्वज्ञ से ही क्यों न सुना जाय। क्योंकि सर्वज्ञ की विवक्षा का प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में उस विवक्षा के विषयभूत शब्द के अर्थ में प्रत्यय या विश्वास कैसे जमेगा? जैसे म्लेच्छ व्यक्ति आर्य व्यक्ति के भाषण की नकल मात्र कर सकता है, उसके अर्थ को नहीं समझ सकता, इसी तरह श्रोता भी सर्वज्ञ के वचनों के अर्थ को नहीं समझ सकता है। उक्त शंका का समाधान यह है कि-यद्यपि वक्ता की विवक्षा अप्रत्यक्ष होती है फिर भी वह अनुमानादि के द्वारा जान ली जाती है। विवक्षा को जानकर संकेत की सहायता से श्रोता को शब्द के अर्थ का ज्ञान हो ही जाता है। यदि ऐसा न हो तो अनादि शब्द-व्यवहार ही ध्वस्त हो जायेगा। शब्द-व्यवहार की कोई उपयोगिता नहीं रहेगी। बालक भी शब्द से अर्थ की प्रतीति कर ही लेता है। अनेक अर्थ वाले सैन्धव आदि शब्द भी भगवान् के द्वारा संकेतित होकर प्रसंग और औचित्य आदि के द्वारा नियत अर्थ को बताते ही हैं। अतः अनेकार्थ वाले शब्दों से भी यथास्थित अर्थ का बोध होता है। भगवान इस प्रकार से तत्त्व प्ररूपित करते हैं जिससे श्रोता को सम्यग् बोध हो जाय। भगवान् सबके हितैषी हैं, वे अविप्रतारक हैं अतएव अन्यथा समझने वाले को उसकी गलती समझाकर सत्य अर्थ की प्रतीति कराते हैं। वे अन्यथा समझने वाले के प्रति उपेक्षा भी नहीं करते, क्योंकि वे तीर्थप्रवर्तन में प्रवृत्त होते हैं। अतएव भगवान् के वचनों से गणधरों को साक्षात् और शेष श्रोताओं को परम्परा से यथावस्थित अर्थ की प्रतीति होती है। अतः आगम अविज्ञात अर्थवाला नहीं है। १. आर्याभिप्रायमज्ञात्वा म्लेच्छ वाग्योगतुल्यता । सर्वज्ञादपि हि श्रोतुस्तदन्यस्यार्थदर्शने ॥
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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