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________________ प्रथम प्रतिपत्ति: मंगलमय प्रस्तावना ] जिणक्खायं - यह जिनमत जिनेश्वर द्वारा साक्षात् वचनयोग द्वारा कहा गया है । कतिपय मनीषियों का कहना है कि तीर्थंकर भगवन् प्रवचन के लिए प्रयास नहीं करते हैं किन्तु उनके प्रकृष्टं पुण्य प्राग्भार से श्रोताजनों को वैसा आभास होता है। जैसे चिन्तामणि में स्वयं कोई रंग नहीं होता किन्तु उपाधि - संसर्ग के कारण वह रंगवाला दिखाई देता है। वैसे ही तीर्थंकर प्रवचन का प्रयास नहीं करते फिर भी उनके पुण्यप्रभाव से श्रोताओं को ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् तीर्थंकर ऐसा ऐसा प्ररूपण कर रहे हैं । यह कथन उचित नहीं है। इस मत का खण्डन करने के लिए 'जिनाख्यात' विशेषण दिया गया - है । इसका तात्पर्य यह है कि तीर्थंकर भगवान् तीर्थंकर नामकर्म के उदय से साक्षात् वचन - व्यापार द्वारा प्रवचन करते हैं। साक्षात् वचन - व्यापार के उपलब्ध होने पर भी यदि आधिपत्यमात्र से श्रोताओं को वैसा प्रतीत होना माना जाय तो अतिप्रसंग होगा। अन्यत्र भी ऐसी कल्पना की जा सकेगी। वैसी स्थिति में प्रत्यक्षविरोध होगा । अतः उक्त मान्यता तर्क और प्रमाण से सम्मत नहीं है । [३ जिणाचिणं - यह जनमत गणधरों द्वारा समाधि रूप से परिणमित हुआ है। यहाँ 'जिन' शब्द से गणधरों का अभिप्राय समझना चाहिए। गणधर ऐसी शक्ति से सम्पन्न होते हैं कि उन्हें हित की प्राप्ति से कोई रोक नहीं सकता। वे इस जिनमत का अर्थ हृदयंगम करके अनासक्ति द्वारा समभाव की प्राप्ति करके समाधिदशा का अनुभव करते हैं। गणधरों द्वारा आसेवित होने से जिनमत को 'जिणाणुचिण्णं' कहा गया है । अथवा अतीतकाल में सामान्यकेवली आदि जिन इसका आसेवन कर जिनत्व को प्राप्त हुए हैं। इस अपेक्षा से भी जिणाणुचिण्णं की संगति समझनी चाहिए । जिणपण्णत्तं - यह जिनमत गणधरों द्वारा प्रज्ञप्त है। पूर्वोक्त समाधिभाव से सम्प्राप्त अतिशय - विशेष के कारण गणधरों में ऐसी विशिष्ट शक्ति आ जाती है जिसके प्रभाव से वे सूत्र के रूप में आचारादि अंगोपांगादि भेद वाले श्रुत की रचना कर देते हैं। इसलिए यह जिनमत सूत्ररूप से जिनप्रज्ञप्त अर्थात् गणधरों द्वारा रचित है । आगम में कहा गया है - ' तीर्थंकर अर्थरूप से कथन करते हैं और गणधर उसे सूत्ररूप से गुम्फित करते हैं। इस तरह जिनशासन के हित के लिए सूत्र प्रवर्तित होता है' । २ जिणदेसियं - यह जिनमत गणधरों द्वारा भी हितमार्ग में प्रवृत्ति करने वाले योग्य जनों को ही दिया गया है। इससे यह ध्वनित होता है कि योग्यजनों को ही सूत्र - सिद्धान्त का ज्ञान दिया जाना चाहिए । यहाँ 'जिन' शब्द का अर्थ हितमार्ग में प्रवृत्ति करने वाले विनेयादि के लिए प्रयुक्त हुआ है। जो श्रोताजन हितमार्ग से अभिमुख हों और अहितमार्ग से विमुख हों, उन्हीं को यह श्रुत दिया जाना चाहिए। सुधर्मा गणधर ने ऐसे ही योग्य विनेय श्री जम्बूस्वामी को यह श्रुत प्रदान किया । १. तदाधिपत्यादाभासः सत्वानामुपजायते । स्वयं तु यत्त्ररहितश्चिन्तामणिरिव स्थितः ॥ २. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तइ ॥ ३. जिना इह हितप्रवृत्तगोत्रविशुद्धोपायाभिमुखापायविमुखादयः परिगृह्यन्ते । - मलयगिरि वृत्ति ।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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