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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
प्रतप्त है, अतएव वे नारक उष्णवेदना वेदते है; शीतवेदना नहीं। शीतोष्णस्वभाव वाली सम्मिलित वेदना का नरकों में मूल से ही अभाव है।
__ शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा में भी उष्णवेदना ही है। पंकप्रभा में शीतवेदना भी और उष्णवेदना भी है। नरकावासों के भेद से कतिपय नारक शीतवेदना वेदते हैं और कतिपय नारक उष्णवेदना वेदते हैं. उष्णवेदना वाले नारक जीव अधिक हैं और शीतवेदना वाले कम हैं।
धूमप्रभा में भी दोनों प्रकार की वेदनाएँ हैं परन्तु वहाँ शीतवेदना वाले अधिक हैं और उष्णवेदना वाले कम हैं।
___छठी नरक में शीत वेदना है। क्योंकि वहाँ के नारक उष्णयोनिक हैं । योनिस्थानों को छोड़कर सारा क्षेत्र अत्यन्त बर्फ की तरह ठंडा है, अतएव उन्हें शीतवेदना भोगनी पड़ती है। सातवीं पृथ्वी में अतिप्रबल शीतवेदना है।
' भवानुभववेदना-रत्नप्रभा आदि नरक भूमियों के नारक जीव क्षेत्रस्वभाव से ही अत्यन्त गाढ अन्धकार से व्याप्त भूमि को देखकर नित्य डरे हुए और शंकित रहते हैं। परमाधार्मिक देव तथा परस्परोदीरित दुःखसंघात से नित्य त्रस्त रहते हैं। वे नित्य दुःखानुभव के कारण उद्विग्न रहते हैं, वे नित्य उपद्रवग्रस्त होने से तनिक भी साता नहीं पाते हैं, वे सदा अशुभ, अशुभ रूप से अनन्यसदृश तथा अशुभरूप से निरन्तर उपचित नरकभव का अनुभव करते हैं। यह वक्तव्यता सब नरकों में है।
सप्तमपृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरकावास में अत्यन्त क्रूर कर्म करने वाले जीव ही उत्पन्न होते हैं, अन्य नहीं। उदाहरण के रूप में यहाँ पांच महापुरुषों का उल्लेख किया गया है जो अत्यन्त उत्कृष्ट स्थिति के और उत्कृष्ट अनुभाग के बन्ध कराने वाले क्रूर कर्मों को बाँधकर सप्तमपृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरकावास में उत्पन्न हुए। वे हैं-१. जमदग्नि का पुत्र परशुराम, २. लच्छति पुत्र दृढायु (टीकाकार के अनुसार छातीसुत दाढादाल), ३. उपरिचर वसुराजा, ४. कोरव्य गोत्रवाला अष्टमचक्रवर्ती सुभूम और ५. चुलनीसुत ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती।
ऐसा कहा जाता है कि परशुराम ने २१ बार क्षत्रियों का नाश करके क्षत्रियहीन पृथ्वी कर दी थी। सुभूम आठवाँ चक्रवर्ती हुआ, इसने सात बार पृथ्वी को ब्राह्मणरहित किया, ऐसी किंवदन्ती है। तीव्र क्रूर अध्यवसायों से ही ऐसा हो सकता है। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती अत्यन्त भोगासक्त था तथा उसके अध्यवसाय अत्यन्त क्रूर थे। वसु राजा उपरिचर के विषय में प्रसिद्ध है कि वह बहुत सत्यवादी था और इस कारण देवताधिष्ठित स्फटिक सिंहासन पर बैठा हुआ भी वह स्फटिक सिंहासन जनता को दृष्टिगोचर न होने से बात फैल गई थी कि राजा प्राण जाने पर भी असत्य भाषण नहीं करता। इसके प्रताप से वह भूमि से ऊपर उठकर अधर में स्थित होता है। एक बार पर्वत और नारद में वेद में आये हुए 'अज' शब्द के विषय में विवाद हुआ। पर्वत अज का अर्थ बकरा करता था और उससे यज्ञ करने का हिंसामय प्रतिपादन करता था। दोनों न्याय के लिए वसु राजा के पास आये। किन्हीं कारणों से वसु राजा ने पर्वत का पक्ष लिया, हिंसामय यज्ञ को प्रोत्साहित किया। इस झूठ के कारण देवता कुपित हुआ और उसे चपेटा मार कर सिंहासन से गिरा दिया।