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________________ तृतीय प्रतिपत्ति: एक-अनेक-विकुर्वणा] [२४५ [८९] (४) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के नरकभव का अनुभव करते हुए विचरते हैं ? गौतम ! वे वहाँ नित्य डरे हुए रहते हैं, नित्य त्रसित रहते हैं, नित्य भूखे रहते हैं, नित्य उद्विग्न रहते हैं, नित्य उपद्रवग्रस्त रहते हैं, नित्य वधिक के समान क्रूर परिणाम वाले, नित्य परम अशुभ, अनन्य सदृश अशुभ और निरन्तर अशुभ रूप से उपचित नरकभव का अनुभव करते हैं । इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। ___ सप्तम पृथ्वी में पांच अनुत्तर बड़े से बड़े महानरक कहे गये हैं, यथा-काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान । वहाँ ये पांच महापुरुष सर्वोत्कृष्ट हिंसादि पाप कर्मों को एकत्रित कर मृत्यु के समय मर कर अप्रतिष्ठान नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न हुए,-१. जमदग्नि का पुत्र परशुराम, २. लच्छतिपुत्र दृढायु, ३. उपरिचर वसुराज, ४. कौरव्य सुभूम और ५. चुलणिसुत ब्रह्मदत्त। ये वहाँ नैरयिक के रूप में उत्पन्न हुए जो वर्ण से काले, काली छवि वाले यावत् अत्यन्त काले हैं, इत्यादि वर्णन करना चाहिए यावत् वे वहाँ अत्यन्त जाज्वल्यमान विपुल एवं यावत् असह्य वेदना को वेदते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नारक जीवों की भूख-प्यास संबंधी वेदना, एक-अनेक शस्त्रों की विकुर्वणा कर परस्पर दी गई वेदना, शीतवेदना, उष्णवेदना और नरकभव से होने वाली वेदनाओं का वर्णन किया है। भूखवेदना-नारक जीवों की भूख-प्यास को असत् कल्पना के द्वारा व्यक्त करते हुए कहा गया है कि यदि किसी एक नारक जीव के मुख में सर्व खाद्य पुद्गलों को डाला दिया जाय और सारे समुद्रों का पानी पिला दिया जाय तो भी न तो उसकी भूख शान्त होगी और न प्यास ही बुझ पायेगी। इसकी थोड़ी सी कल्पना हमें इस मनुष्यलोक में प्रबलतम भस्मक व्याधि वाले पुरुष की दशा से आ सकती हैं। ऐसी तीव्र भूख-प्यास की वेदना वे नारक जीव सहने को बाध्य हैं। शस्त्रविकुर्वणवेदना-वे नारक जीव एक प्रकार के और बहुत प्रकार के नाना शस्त्रों की विकुर्वणा करके एक दूसरे नारक जीव पर तीव्र प्रहार करते हैं। वे परस्पर में तीव्र वेदना देते हैं, इसलिए परस्पररोदीरित वेदना वाले हैं। पाठ में आया हुआ 'पुहुत्तं' शब्द बहुत्व का वाचक है। इस विक्रिया द्वारा वे दूसरों को उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, परुष, निष्ठुर, चण्ड, तीव्र, दुःखरूप, दुर्लध्य और दुःसह्य वेदना देते हैं। यह विकुर्वणा रूप वेदना पांचवी नरक तक समझना चाहिए। छठी और सातवीं नरक में तो नारक जीव वज्रमय मुखवाले लाल और गोबर के कीड़े के समान, बड़े कुन्थुओं का रूप बनाकर एक दूसरे के शरीर पर चढ़ते हैं और काट-काट कर दूसरे नारक के शरीर में अन्दर तक प्रवेश करके इक्षु का कीड़ा जैसे इक्षु को खा-खाकर छलनी कर देता है, वैसे वे नारक के शरीर को छलनी करके वेदना पहुँचाते हैं। शीतादि वेदना-रत्नप्रभापृथ्वी के नारक शीतवेदना नहीं वेदते हैं, उष्णवेदना वेदते हैं, शीतोष्णवेदना नहीं वेदते हैं। वे नारक शीतयोनि वाले हैं। योनिस्थान के अतिरिक्त समस्त भूमि खैर के अंगारों से भी अधिक
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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