________________
प्रथम प्रतिपत्ति: वायुकाय]
पर्याप्त और अपर्याप्त । अपर्याप्त जीवों के वर्णादि स्पष्टरूप से प्रकट नहीं होते हैं। पर्याप्त जीवों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों प्रकार और संख्यात योनियां हो जाती हैं। इनकी सात लाख योनियां हैं। एक पर्याप्त की निश्रा में असंख्यात अपर्याप्त जीव उत्पन्न होते हैं।
शरीर आदि २३ द्वारों की विचारणा सूक्ष्म तेजस्कायिकों की तरह जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इनकी स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन रात-दिन की है। आहार बादर पृथ्वीकायिकों के समान समझना चाहिए। वायुकाय
२६. से किं तं वाउक्काइया ? वाउक्काइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहासुहुमवाउक्काइया य बादरवाउक्काइया य।
सुहुमवाउक्काइया जहा तेउक्काइया णवरं सरीरा पडागसंठिया एगगतिआ दुआगतिया परित्ता असंखिज्जा से त्तं सुहुमवाउक्काइया। . से किं तं बादरवाउक्काइया ?
बादरवाउक्काइया अणेगविधा पण्णत्ता, तं जहा
पाईणवाए, पडीणवाए, एवं जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य ।
तेसिं णं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि सरीरगा पण्णत्ता, तं जहाओरालिए, वेउव्विए, तेयए, कम्मए। सरीरगा पडागसंठिया, चत्तारि समुग्घायावेयणासमुग्याए, कसायसमुग्याए, मारणंतियसमुग्याए, वेउब्वियसमुग्घाए।
आहारो णिवाघाएणं छहिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं।
उववाओ देवमणुयनेरइएसुणत्थिाठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्निवाससहस्साई,
सेसं तं चेव एगगतिया, दुआगतिया, परित्ता, असंखेजा पण्णत्ता समणाउसो ! से तं बायरवाउक्काइया, से तं वाउक्काइया।
[२६] वायुकायिकों का स्वरूप क्या है ? वायुकायिक दो प्रकार के कहे गये हैं, यथासूक्ष्म वायुकायिक और बादर वायुकायिक। सूक्ष्म वायुकायिक तेजस्कायिक की तरह जानने चाहिए। विशेषता यह है कि उनके शरीर पताका (ध्वजा) के आकार के हैं। ये एक गति में जाने वाले