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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
रहा है, तात्त्विक रूप से सत् है। जो बीत चुका है वह नष्ट हो गया और जो आगे आने वाला है वह अभी उत्पन्न ही नहीं हुआ। अतएव भूत और भविष्य असत् हैं, केवल वर्तमान क्षण ही सत् है। एक समय रूप होने से इसका कोई समूह नहीं बनता, इसलिए इसके देश-प्रदेश की कल्पना नहीं होती।
यह काल समयक्षेत्र और असमयक्षेत्र का विभाग करने वाला है। अढ़ाई द्वीप पर्यन्त ज्योतिष् चक्र गतिशील है और उसके कारण अढ़ाई द्वीप में काल का व्यवहार होता है अतएव अढ़ाई द्वीप को समयक्षेत्र कहते हैं। उसके आगे काल-विभाग न होने से असमयक्षेत्र कहा जाता है। यह कथन भी व्यवहारनय की अपेक्षा से समझना चाहिए।
काल द्रव्य का कार्य वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्वापरत्व है। अपने अपने पर्याय की उत्पत्ति में निमित्त होना वर्तना है। पूर्व पर्याय का त्याग और उत्तर पर्याय का धारण करना परिणाम है। परिस्पन्दन होना क्रिया है और ज्येष्ठत्व कनिष्ठत्व परत्वापरत्व है.
काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के सम्बन्ध में सर्व आचार्य एकमत नहीं हैं। कोई आचार्य उसे स्वतन्त्र द्रव्य कहते हैं और कोई कहते हैं कि काल स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है अपितु जीवाजीवादि द्रव्यों की पर्यायों का प्रवाह ही काल है। काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वाले आचार्यों की युक्ति है कि जिस प्रकार जीव और पुद्गल में गति-स्थिति करने का स्वभाव होने पर भी उस कार्य के लिए निमित्त-कारण के रूप में धर्मास्तिकाय
और अधर्मास्तिकाय माने जाते हैं, इसी प्रकार जीव-अजीव में पर्यायपरिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके लिए निमित्तकारण रूप में कालद्रव्य मानना चाहिए। अन्यथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय मानने में भी कोई युक्ति नहीं। दिगम्बर परम्परा में यही पक्ष स्वीकार किया गया है।
काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानने वाले पक्ष की युक्ति है कि पर्याय परिणमन जीव-अजीव की क्रिया है, जो किसी तत्त्वान्तर की प्रेरणा के बिना ही हुआ करती है। इसलिए वस्तुतः जीव-अजीव के पर्यायपंज को ही काल कहना चाहिए। काल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा में दोनों ही पक्षों का उल्लेख है।
इस प्रकार धर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश; अधर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश और आकाशस्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश और अद्धासमय-ये दस अरूपी अजीव के भेद समझने चाहिए।
___ रूपी-अजीव-रूपी अजीव के चार भेद बताये हैं-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणुपुद्गल। पुद् गल स्कन्धों की अनन्तता के कारण मूलपाठ में बहुवचन का प्रयोग हुआ है। जैसा कि कहा गया है-'द्रव्य से पुद्गलास्तिकाय अनन्त है।' २ स्कन्धों के बुद्धिकल्पित द्वि-प्रदेशी आदि विभाग स्कन्धदेश हैं। स्कन्धों में मिले हुए निर्विभाग भाग स्कन्ध-प्रदेश हैं । स्कन्धपरिणाम से रहित स्वतन्त्र निर्विभाग पुद्गल परमाणु है,
-तत्वार्थसूत्र अ.५ सू. २२
१. वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य। २. 'दव्वओ णं पुग्गलत्थिकाए णं अणंते।'