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________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : तिर्यचस्त्री का तद्रूप में अवस्थानकाल] [१३१ है-द्वितीय आदेश की तरह कोई जीव पांच छह बार पूर्वकोटि प्रमाण वाली मनुष्यस्त्री या तिर्यंचस्त्री में उत्पन्न हुआ और बाद में सौधर्म देवलोक की सात पल्योपम प्रमाण आयु वाली परिगृहीता देवियों में दो बार देवी रूप में उत्पन्न हो, इस अपेक्षा से स्त्रीवेद का उत्कृष्ट अवस्थान-काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम (४) चौथी अपेक्षा से स्त्रीवेद का अवस्थानकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम है। एक समय की भावना प्रथम आदेशानुसार है। उत्कृष्ट की भावना इस प्रकार है पूर्वकोटि आयु वाली मनुष्यस्त्री या तिर्यंचस्त्री रूप में पांच छह बार पूर्व की तरह रहकर सौधर्मदेवलोक में ५० पल्योपम की उत्कृष्ट आयुवाली अपरिगृहीता देवी के रूप में दो बार उत्पन्न होने पर ५०+५०-१०० पल्योपम और पूर्वकोटिपृथक्त्व तिर्यंच-मनुष्यस्त्री का काल मिलाने पर यथोक्त अवस्थानकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम होता है । ४। (५) पांचवीं अपेक्षा से स्त्रीवेद का अवस्थानकाल जघन्य एक समय.और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व है। जघन्य की भावना पूर्ववत्। उत्कृष्ट की भावना इस प्रकार है - कोई जीव मनुष्यस्त्री या तिर्यंचस्त्री के रूप में पूर्वकोटि आयुष्य सहित सात भव करके आठवें भव में देवकुरु आदि की तीन पल्योपम की स्थिति वाली स्त्रियों में स्त्रीरूप से उत्पन्न हो, वहाँ से मरकर सौधर्म देवलोक की जघन्यस्थिति वाली (पल्योपम स्थिति वाली) देवियों में देवीरूप से उत्पन्न हो, इसके बाद अवश्य वेदान्तर होता है। इस प्रकार पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व प्रमाण स्त्रीवेद का अवस्थानकाल होता है। ५। ___ उक्त पांच आदेशों में से कौनसा आदेश समीचीन है, इसका निर्णय अतिशय ज्ञानी या सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धिसम्पन्न ही कर सकते हैं। वर्तमान में वैसी स्थिति न होने से सूत्रकार ने पांचों आदेशों का उल्लेख कर दिया है और अपनी ओर से कोई निर्णय नहीं दिया है। हमें तत्त्व केवलिगम्य मानकर पांचों आदेशों की अलग अलग अपेक्षाओं को समझना चाहिए। तिर्यंचस्त्री का तद्रूप में अवस्थानकाल [२] तिरिक्खजोणित्थी णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थित्ति कालओ केवच्चिरं होति ? गोयमा !जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाई। जलयरीए जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडिपुहत्तं। चउप्पदथलयरतिरिक्खजोणित्थी जहा ओहिया तिरिक्खजोणित्थी। उरपरिसप्पी-भुयपरिसप्पित्थीणं जहा जलयरीणं, खहयरित्थी णं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्सअसंखेज्जइभागं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियं। [४८] (२) हे भगवन् ! तिर्यश्चस्त्री तिर्यञ्चस्त्री के रूप में कितने समय तक (लगातार) रह सकती
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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