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प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ]
अर्थात् ये यथासामीप्य वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं- दूरस्थ को नहीं ।
ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव जिन यथा - आसन्न पुद्गलों को ग्रहण करते हैं उन्हें व्याघात न होने पर छहों दिशाओं से ग्रहण करते हैं । व्याघात होने पर कभी तीन दिशाओं, कभी चार दिशाओं, कभी पांच दिशाओं के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं । व्याघात का अर्थ है- अलोकाकाश से प्रतिस्खलन ( रुकावट) । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
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जब कोई सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव लोकनिष्कुट में (आखरी किनारे पर ) नीचे के प्रतर के आग्नेयकोण रहा हुआ हो तो उसके नीचे अलोक होने से अधोदिशा में पुद्गलों का अभाव होता हैं, आग्नेयकोण में स्थित होने से पूर्वदिशा के पुद्गलों का और दक्षिणदिशा के पुद्गलों का अभाव होता है। इस तरह अधोदिक् पूर्वदिक् और दक्षिणदिक्- ये तीन दिशाएँ अलोक से व्याप्त होने से इनमें पुद्गलों का अभाव है, अतः शेष तीन दिशाओं के पुद्गलों का ही ग्रहण संभव है । इसलिए कहा गया है कि वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव व्याघात को लेकर कभी तीन दिशाओं के पुद्गलों का आहार करते हैं ।
जब वही जीव पश्चिमदिशा में वर्तमान होता है तब उसके पूर्वदिशा अधिक हो जाती है। दक्षिणदिशा और अधोदिशा- ये दो दिशाएँ ही अलोक से व्याप्त होती हैं इसलिए वह जीव चार दिशाओं से - ऊर्ध्व, पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा से पुद्गलों को ग्रहण करता है ।
जब वह जीव ऊपर के द्वितीयादि प्रतरगत पश्चिमदिशा में होता है तब उसके अधोदिशा भी अधिक हो जाती है। केवल एकपर्यन्तवर्तिनी दक्षिण दिशा ही अलोक से व्याहत रहती है। ऐसी स्थिति में वह जीव पूर्वोक्त चार और अधोदिशा मिलाकर पाँच दिशाओं में स्थित पुद्गलों को ग्रहण करता है ।
आहारद्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव प्रायः - बहुलता से पाँचों वणों के, दोनों गंधवाले, पांचों रसवाले और आठों स्पर्शवाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और उनके पूर्ववर्ती वर्ण, रस, गंध और स्पर्श गुणों को परिवर्तित कर अपूर्व वर्ण, गंध, रस और स्पर्श गुणों को पैदा कर अपने शरीरक्षेत्र में अवगाढ पुद्गलों को आत्मप्रदेशों से आहार के रूप में ग्रहण करते हैं ।
१९. उपपातद्वार—जहाँ से आकर उत्पत्ति होती है वह उपपात है। ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव नरक से आकर उत्पन्न नहीं होते, देवों से आकर भी उत्पन्न नहीं होते। ऐसा ही भवस्वभाव है कि देव और नारक सूक्ष्म पृथ्वीकाय के रूप में उत्पन्न नहीं होते । ये जीव असंख्यात वर्षों की आयुवाले तिर्यंचों को छोड़कर शेष पर्याप्त - अपर्याप्त तिर्यंचों से आकर उत्पन्न होते हैं। असंख्यात वर्षायु तिर्यंच इनमें उत्पन्न नहीं होते । कर्मभूमि के अन्तरद्वीपों के और असंख्यात वर्ष की आयुवाले कर्मभूमि में उत्पन्न मनुष्यों को छोड़कर शेष पर्याप्त - अपर्याप्त मनुष्यों से आकर उत्पन्न हो सकते हैं।
२०. स्थितिद्वार — स्थिति से मतलब उसी जन्म की आयु से है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव की स्थिति जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त है और अधिक से अधिक भी अन्तर्मुहूर्त ही है। लेकिन जघन्य अन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक समझना चाहिए ।