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________________ १२६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ____ जो चारित्रधर्म की अपेक्षा से मनुष्यस्त्रियों की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त कही गई है वह उसी भव में परिणामों की धारा बदलने पर चारित्र से गिर जाने की अपेक्षा से समझना चाहिए। कम से कम अन्तर्मुहूर्त काल तक तो चारित्र रहता ही है। किसी स्त्रिी ने तथाविध क्षयोपशमभाव से सर्वविरति रूप चारित्र को स्वीकार कर लिया तथा उसी भाव में कम से कम अन्तर्मुहूर्त बाद वह परिणामों की धारा बदलने से पतित होकर अविरत सम्यग्दृष्टि हो गई या मिथ्यात्वगुणस्थान में चली गई तो इस अपेक्षा से चारित्रधर्म की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त काल की रही अथवा चारित्र स्वीकार करने के बाद मृत्यु भी हो जाय तो भी अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में अन्तर्मुहूर्तकाल की संभावना है ही। दूसरी दृष्टि से भी इसकी संगति की जाती है। धर्माचरण से यहाँ देशविरति समझना चाहिए, सर्वविरति नहीं। देशविरति जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त की ही होती हैं क्योंकि देशविरति के बहुत से भंग (प्रकार) हैं। शंका की जा सकती है कि उभयरूप चारित्र की संभावना होते हुए भी देशविरति का ही ग्रहण क्यों किया जाय? इसका समाधान है कि प्रायः सर्वविरति देशविरति पूर्वक होती है, यह बतलाने के लिए ऐसा ग्रहण किया जा सकता हैं। वृद्ध आचार्यों ने कहा है कि 'सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात् (अधिक से अधिक) पल्योपमपृथक्त्वकाल में श्रावकत्व की प्राप्ति और चारित्रमोहनीय का उपशम या क्षय संख्यात सागरोपम के पश्चात् होता हैं। चारित्र की उत्कृष्ट स्थिति देशोनपूर्वकोटि कही गई है। आठ वर्ष की अवस्था के पूर्व चारित्र परिणाम नहीं होते।आठ वर्ष की अवस्था के बाद चारित्र स्वीकार करके उससे गिरे बिना चारित्रधर्म का पालन पूर्वकोटि के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त तक करते रहने की अपेक्षा से कहा गया है। आठ वर्ष की अवधि को कम करने से देशोनपूर्वकोटि चारित्रधर्म की दृष्टि से मनुष्यस्त्रियों की स्थिति बताई गई है। पूर्वकोटि से तात्पर्य एक करोड़ पूर्व से है। पूर्व का परिमाण इस प्रकार है-७० लाख ५६ हजार करोड़ वर्षों का एक पूर्व होता है (७०,५६०००,०००००००=सत्तर, छप्पन और दस शून्य)। मनुष्यस्त्रियों की औधिक स्थिति बताने के पश्चात् कर्मभूमिक आदि विशेष मनुष्यस्त्रियों की वक्तव्यता कही गई है। कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों की स्थिति क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम है। यह भरत और ऐरवत क्षेत्र में सुषमसुषम नामक आरक में समझना चाहिए। चारित्रधर्म की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि है। यह कर्मभूमि के सामान्य लक्षण को लेकर वक्तव्यता हुई। विशेष की वक्तव्यता इस प्रकार है-भरत और ऐरवत में तीन पल्योपम की स्थिति सुषमसुषम आरे में होती है। पूर्व-पश्चिम विदेहों में क्षेत्र से पूर्वकोटि स्थिति है, क्योंकि क्षेत्रस्वभाव से इससे अधिक आयु वहां नहीं होती। चारित्रधर्म को लेकर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि है। १. सम्मतम्मि उ लद्धे पलिय पुहुत्तेण सावओ होइ। चरणोवसमखयाणं सागर संखंतरा होंति ॥ पुव्वस्स उ परिमाणं सयरि खल होंति कोडिलक्खाओ। छप्पण्णं च सहस्सा बोद्धव्वा वासकोडीणं ॥
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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