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________________ तृतीय प्रतिपत्ति :शाश्वत और अशाश्वत] [२१५ इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! न कयाइ ण असि, न कयाइ णत्थि, न कयाइ न भविस्सइ; भुविं च भवइ य भविस्सइ य; धुवा, णियया, साससा, अक्खया, अव्वया, अवट्ठिआ णिच्चा। एवं चेव अधेसत्तमा। हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी शाश्वत है या अशाश्वत ? गौतम ! कथञ्चित् शाश्वत है और कथञ्चित् अशाश्वत है। भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है-कथंचित् शाश्वत् है, कथंचित् अशाश्वत है ? गौतम ! द्रव्यार्थिकत्व की अपेक्षा से शाश्वत है और वर्णपर्यायों से, गंधपर्यायों से, रसपर्यायों से स्पर्शपर्यायों से अशाश्वत है। इसलिए गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि यह रत्नप्रभापृथ्वी कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है। इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी काल से कितने समय तक रहने वाली है ? गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी 'कभी नहीं थी', ऐसा नहीं, कभी नहीं है', ऐसा भी नहीं और 'कभी नहीं रहेगी', ऐसा भी नहीं। यह अतीतकाल में थी, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगी। यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। ___ इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक जाननी चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में रत्नप्रभापृथ्वी को शाश्वत भी कहा है और अशाश्वत भी कहा है। इस पर शंका होती है कि शाश्वतता और अशाश्वतता परस्पर विरोधी धर्म हैं तो एक ही वस्तु में दो विरोधी धर्म कैसे रह सकते हैं ? यदि वह शाश्वत है तो अशाश्वत नहीं हो सकती और अशाश्वत है तो शाश्वत नहीं हो सकती। जैसै शीतत्व और उष्णत्व एकत्र नहीं रह सकते। एकान्तवादी दर्शनों की ऐसी ही मान्यता है। अतएव नित्यैकान्तवादी अनित्यता का अपलाप करते हैं और अनित्यैकान्तवादी नित्यता का अपलाप करते हैं। सांख्य आदि दर्शन एकान्त नित्यता का समर्थन करते हैं जबकि बौद्धादि दर्शन एकान्त क्षणिकता-अनित्यता का समर्थन करते हैं। जैनसिद्धान्त इन दोनों एकान्तों का निषेध करता है और अनेकान्त का समर्थन करता है। जैनआगम और जैनदर्शन प्रत्येक वस्तु को विविध दृष्टिकोणों से देखकर उसकी विविधरूपता और एकरूपता को स्वीकार करता है। वस्तु भिन्न-भिन्न विवक्षाओं और अपेक्षाओं से भिन्नरूप वाली है और उस भिन्नरूपता में भी उसका एकत्व रहा हुआ है। एकान्तवादी दर्शन केवल एक धर्म को ही समग्र वस्तु मान लेते हैं। जबकि वास्तव में वस्तु विविध पहलुओं से विभिन्न रूप वाली है। अतएव एकान्तवाद अपूर्ण है, एकांगी है। वह वस्तु के समग्र और सही स्वरूप को प्रकट नहीं करता। जैनसिद्धान्त वस्तु को समग्र रूप में देख कर प्ररूपण करता है कि प्रत्येक वस्तु अपेक्षाभेद से नित्य भी है, अनित्य भी है, सामान्यरूप भी है, विशेषरूप भी है, एकरूप भी है अनेकरूप भी है। भिन्न भी है और अभिन्न भी है। ऐसा मानने पर
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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