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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
एकान्तवादी दर्शन जो विरुद्धधर्मता का दोष देते हैं वह यथार्थ नहीं है। क्योंकि विरोध दोष तो तब हो जब एक ही अपेक्षा या एक ही विवक्षा से उसे नित्यानित्य आदि कहा जाये। अपेक्षा या विवक्षा के भेद से ऐसा मानने पर कोई दोष या असंगति नहीं है। जैसे एक ही व्यक्ति विविध रिश्तों को लेकर पिता, पुत्र, मामा, काका आदि होता ही है। इसमें क्या विरोध है ? यह तो अनुभवसिद्ध और व्यवहारसिद्ध तथ्य है।
जैन सिद्धान्त अपने इस अनेकान्तवादी दृष्टिकोण को नयों के आधार से प्रमाणित करता है। संक्षेप में नय दो प्रकार के हैं-१. द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय। द्रव्यनय वस्तु के सामान्य स्वरूप को ग्रहण करता है और पर्यायनय वस्तु के विशेषस्वरूप को ग्रहण करता है। प्रत्येक वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है।'
वस्तु न एकान्त द्रव्यरूप है और न एकान्त पर्याय रूप है। वह उभयात्मक है। द्रव्य को छोड़कर पर्याय नहीं रहते और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं रहता। द्रव्य, पर्यायों का आधार है और पर्याय द्रव्य का आधेय है। आधेय के बिना आधार और आधार के बिना आधेय की स्थिति ही नहीं है। द्रव्य के बिना पर्याय और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं रह सकता। अतएव कहा जा सकता है कि परिकल्पित एकान्त द्रव्य असत है क्योंकि वह पर्यायरहित है। जो पर्यायरहित है वह द्रव्य असत् है जैसे बालत्वादिपर्याय से शून्य बन्ध्यापुत्र। इसी तरह यह भी कहा जा सकता है कि परपरिकल्पित एकान्त पर्याय असत् है क्योंकि वह द्रव्य से भिन्न है। जो द्रव्य से भिन्न है वह असत् है जैसे बन्ध्यापुत्र की बालत्व आदि पर्याय। अतएव सिद्ध होता है कि वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है और उभयदृष्टि से उसका समग्र विचार करना चाहिए।
उक्त अनेकान्तवादी एवं प्रमाणित दृष्टिकोण को लेकर ही सूत्र में कहा गया है कि रत्नप्रभापृथ्वी द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत है। अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी का आकारादि भाव उसका अस्तित्व आदि सदा से था, है और रहेगा। अतएव वह शाश्वत है। परन्तु उसके कृष्णादि वर्ण पर्याय, गंधादि पर्याय, रस पर्याय, स्पर्श पर्याय आदि प्रतिक्षण पलटते रहते हैं अतएव वह अशाश्वत भी है। इस प्रकार द्रव्यार्थिकनय की विवक्षा से रत्नप्रभापृथ्वी शाश्वत है और पर्यायार्थिक नय से वह अशाश्वत है। इसी प्रकार सातों नरकपृथ्वियों की वक्तव्यता जाननी चाहिए।
रत्नप्रभादि की शाश्वतता द्रव्यापेक्षया कही जाने पर शंका हो सकती है कि यह शाश्वतता सकलकालावस्थिति रूप है या दीर्घकाल-अवस्थितिरूप है, जैसा कि अन्यतीर्थी कहते हैं-यह पृथ्वी आकल्प शाश्वत है ? ३ इस शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि यह पृथ्वी अनादिकाल से सदा से थी, सदा है और सदा रहेगी। यह अनादि-अनन्त है। त्रिकालभावी होने से यह ध्रुव है, नियत स्वरूप वाली होने से धर्मस्तिकाय की तरह नियत है, नियत होने से शाश्वत है, क्योंकि इसका प्रलय नहीं होता। शाश्वत होने
१. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । -तत्त्वार्थसूत्र
द्रव्य-पर्यायात्मकं वस्तु। २. द्रव्यं पर्यायवियुतं, पर्याया द्रव्यवर्जिता। क्व कदा केन किंरूपा, दृष्टा मानेन केन वा। ३. 'आकप्पट्ठाई पुढवी सासया।'