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________________ ४२० ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र करेइ, करित्ता कयग्गाहगहिय जाव पुष्फपुंजोवयारकलियं करेइ, करेत्ता धूवं दलयइ, दलइत्ता जेणेव मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहुमज्झदेसभाए लोमहत्थेणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खित्ता सरसेण गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलगं आलिहइ, आलिहित्ता चच्चए दलयइ, कयग्गाह० जाव धूवं दलयइ, दलइत्ता जेणेव मुहमंडवगस्स पच्चत्थिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ। _ [१४२] (२) तदनन्तर विजयदेव के चार हजार सामानिक देव यावत् और अन्य भी बहुत सारे वानव्यन्तर देव और देवियां कोई हाथ में उत्पल कमल लेकर यावत् कोई शतपत्र सहस्रपत्र कमल हाथों में लेकर विजयदेव के पीछे-पीछे चलते हैं। उस विजयदेव के बहुत सारे आभियोगिक देव और देवियां कोई हाथ में कलश लेकर यावत् धूप का कडुच्छुक हाथ में लेकर विजयदेव के पीछे-पीछे चलते हैं। तब वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों के साथ यावत् अन्य बहुत सारे वानव्यन्तर देवों और देवियों के साथ और उनसे घिरे हुए सब प्रकार की ऋद्धि और सब प्रकार की युति के साथ यावत् वाद्यों की गूंजती हुई ध्वनि के बीच जिस ओर सिद्धायतन था, उस ओर आता है और सिद्धायतन की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से सिद्धायतन में प्रवेश करता है और जहां देवछंदक था वहाँ आता है और जिन प्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम करता है। फिर लोमहस्तक लेकर जिन प्रतिमाओं का प्रमार्जन करता है और सुगंधित गंधोदक से उन्हें नहलाता है, दिव्य सुगंधित गंधकाषायिक (तौलिए) से उनके अवयवों को पोंछता है, सरस गोशीर्ष चन्दन का उनके अंगों पर लेप करता है, फिर जिनप्रतिमाओं को अक्षत, श्वेत और दिव्य देवदूष्य-युगल पहनाता है और श्रेष्ठ, प्रधान गंधों से, माल्यों से उन्हें पूजता है; पूजकर फूल चढ़ाता है, गंध चढाता है, मालाएँ चढ़ाता है-वर्णक (केसरादि) चूर्ण और आभरण चढ़ाता है। फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई, विपुल और गोल बड़ी-बड़ी मालाएं चढ़ाता है। तत्पश्चात् स्वच्छ, सफेद, रजतमय और चमकदार चावलों से जिनप्रतिमाओं के आगे आठ-आठ मंगलों का आलेखन करता है। वे आठ मंगल हैंस्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण। आठ मंगलों का आलेखन करके कचग्राह से गृहीत और करतल से मुक्त होकर बिखरे हुए पांच वर्गों के फूलों से पुष्पोपचार करता है (फूल पूजा करता है)। चन्द्रकान्त मणिवज्रमणि और वैडूर्यमणि से युक्त निर्मल दण्ड वाले, कंचन मणि और रत्नों से विविधरूपों में चित्रित, काला अगुरु श्रेष्ठ कुंदरुक्क और लोभान के धूप की उत्तम गंध से युक्त, धूप की वाती को छोड़ते हुए वैडूर्यमय कडुच्छक को लेकर सावधानी के साथ धूप देकर साथ आठ पांव पीछे सरक कर जिनवरों की एक सौ आठ विशुद्ध ग्रन्थ (शब्द संदर्भ) युक्त, महाछन्दों वाले, अर्थयुक्त और अपुनरुक्त स्तोत्रों से स्तुति करता है। स्तुति करके बायें घुटने को ऊँचा रखकर तथा दक्षिण (दायें) घुटने को जमीन से लगाकर तीन बार अपने मस्तक को जमीन पर नमाता है, फिर थोड़ा ऊँचा उठाकर अपनी कटक और त्रुटित (बाजूबंद) से स्तंभित भुजाओं को संकुचित कर हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोलता है-'नमस्कार हो अरिहन्त भगवन्तों को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए हैं।' ऐसा कहकर वन्दन करता है, नमस्कार करता है। वन्दन-नमस्कार करके जहाँ सिद्धायतन का मध्यभाग है वहाँ आता है और दिव्य जल की धारा से उसका
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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