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________________ प्रथम प्रतिपत्ति :जीवाभिगम का स्वरूप और प्रकार ] [१५ स्वयंबुद्धों के पात्रादि बारह प्रकार की उपधि होती है, जबकि प्रत्येकबुद्धों के जघन्यतः दो और उत्कृष्टतः वस्त्र को छोड़कर नौ प्रकार की उपधि होती है। स्वयंबुद्धों के पूर्वाधीत श्रुत होता भी है और नहीं भी होता है। अगर होता है तो देवता उन्हें वेष (लिंग) प्रदान करता है अथवा वे गुरु के पास जाकर मुनिवेष धारण कर लेते हैं। यदि वे एकाकी विचरण करने में समर्थ हों और एकाकी विचरण की इच्छा हो तो एकाकी विचरण करते हैं, नहीं तो गच्छवासी होकर रहते हैं। यदि उनके पूर्वाधीत श्रुत न हो तो नियम से गुरू के सान्निध्य में मुनिवेष लेकर गच्छवासी होकर रहते हैं। प्रत्येकबुद्धों के नियम से पूर्वाधीत श्रुत होता है। जघन्यतः ग्यारह अंग और उत्कृष्टतः दस पूर्व से कुछ कम श्रुत पूर्वाधीत होता है। उन्हें देवता मुनिलिंग देते हैं अथवा कदाचित् वे लिंगरहित भी रहते हैं। ७. बुद्धबोधितसिद्ध-आचार्यादि से प्रतिबोध पाकर जो सिद्ध होते हैं वे बुद्धबोधितसिद्ध हैं । यथाजम्बू आदि। ८. स्त्रीलिंगसिद्ध-स्त्री शरीर से जो सिद्ध हुए हों वे स्त्रीलिंगसिद्ध हैं । यथा-मल्लि तीर्थंकर, मरुदेवी आदि। लिंग' तीन तरह का है-वेद, शरीरनिष्पत्ति और वेष। यहाँ शरीर-रचना रूप लिंग का अधिकार है। वेद और नेपथ्य का नहीं। वेद मोहकर्म के उदय से होता है। मोहकर्म के रहते सिद्धत्व नहीं आता। जहाँ तक वेष का सवाल है वह भी मुक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं रखता। अतः यहाँ स्त्रीशरीर से प्रयोजन है।' दिगम्बर परम्परा की मान्यता है कि स्त्री-शरीर से मुक्ति नहीं होती जबकि यहाँ 'स्त्रीलिंगसिद्ध' कह कर स्त्रीमुक्ति को मान्यता दी गई है। स्त्री की मुक्ति नहीं होती' इस मान्यता का कोई तार्किक या आगमिक आधार नहीं है। मुक्ति का सम्बन्ध शरीर-रचना के साथ न होकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र के प्रकर्ष के साथ है। स्त्री-शरीर में ज्ञान-दर्शन-चारित्र का प्रकर्ष क्यों नहीं हो सकता ? पुरुष की तरह स्त्रियाँ भी ज्ञानदर्शन-चारित्र का प्रकर्ष कर सकती हैं। दिगम्बर परम्परा में वस्त्र को चारित्र का प्रतिबन्धक माना गया है और स्त्रियाँ वस्त्र का त्याग नहीं कर सकती, इस तर्क से उन्होंने स्त्री की मुक्ति का निषेध कर दिया है। परन्तु तटस्थ दृष्टि से सोचने पर स्पष्ट हो जाता है कि वस्त्र का रखना मात्र चारित्र का प्रतिबंधक नहीं होता। वस्त्रादि पर ममत्व होना चारित्र का प्रतिबंधक है। वस्त्रादि के अभाव में भी शरीर पर ममत्व हो सकता है तो शरीर का त्याग भी चारित्र के लिए आवश्यक मानना होगा। शरीर का त्याग तो नहीं किया जा सकता, ऐसी स्थिति में क्या चारित्र का पालन नहीं हो सकता ? निष्कर्ष यह है कि वस्त्रादि के रखने मात्र से चारित्र का अभाव नहीं हो जाता, आगम में तो मूर्छा को परिग्रह कहा गया है। वस्तुओं को नहीं। अतः वस्त्रों का त्याग न करने के कारण १. लिंगं च तिविहं-वेदो सरीरनिवित्ती नेवत्थं च। इह सरीरनिव्वत्तीए अहिगारो न वेय-नेवत्थेहिं। -नन्दी
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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