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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
ज्ञानद्वार-मनुष्य ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं। जो मिय्यादृष्टि हैं वे अज्ञानी हैं और जो सम्यग्दृष्टि हैं वे ज्ञानी हैं। इनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना कही गई है। वह इस प्रकार हैकोई मनुष्य दो ज्ञान वाले हैं, कोई तीन ज्ञान वाले हैं, कोई चार ज्ञान वाले हैं और कोई एक ज्ञान वाले हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं, वे नियम से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान वाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान वाले हैं अथवा मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी हैं। क्योंकि अवधिज्ञान के बिना भी मनःपर्यायज्ञानी हो सकता है। सिद्धप्राभृत आदि में अनेक स्थानों पर ऐसा कहा गया है।
जो चार ज्ञान वाले हैं वे मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी हैं।
जो एक ज्ञान वाले हैं वे केवलज्ञानी हैं। केवलज्ञान होने पर शेष चारों ज्ञान चले जाते हैं। आगम में कहा गया है कि केवलज्ञान होने पर छाद्मस्थिकज्ञान नष्ट हो जाते हैं।' केवलज्ञान होने पर शेष ज्ञानों का नाश कैसे?
यहाँ शंका हो सकती है कि केवलज्ञान का प्रादुर्भाव होने पर शेष ज्ञान चले क्यों जाते हैं ? अपनेअपने आवरण के आंशिक क्षयोपशम होने पर ये मति आदि ज्ञान होते हैं तो अपने-अपने आवरण के निर्मूल क्षय होने पर वे अधिक मात्रा में होने चाहिए, जैसे कि चारित्रपरिणाम होते हैं।
इसका समाधान मरकत मणि के उदाहरण से किया गया हैं। जैसे जातिवंत श्रेष्ठ मरकत मणि मल आदि से लिप्त होने पर जब तक उसका समूल मल नष्ट नहीं होता तब तक थोड़ा थोड़ा मल दूर होने पर थोड़ी थोड़ी मणि की अभिव्यक्ति होती है। वह क्वचित्, कदाचित् और कथंचिद् होने से अनेक प्रकार की होती है। इसी तरह आत्मा स्वभाव से समस्त पदार्थों को जानने की शक्ति से सम्पन्न है परन्तु उसका यह स्वभाव आवरण रूप मल-पटल से तिरोहित है। जब तक पूरा मल दूर नहीं होता तब तक आंशिक रूप से मलोच्छेद होने से उस स्वभाव की आंशिक अभिव्यक्ति होती है। वह क्वचित् कदाचित् और कथंचित् होने से अनेक प्रकार की हो सकती है। वह मति, श्रुत आदि के भेद से होती है। जब मरकतमणि का सम्पूर्ण मल दूर हो जाता हैं तो वह मणि एक रूप में ही अभिव्यक्त होती है। इसी तरह जब आत्मा के सम्पूर्ण आवरण दूर हो जाते हैं तो आंशिक ज्ञान नष्ट होकर सम्पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) एक ही रूप में अभिव्यक्त हो जाता हैं। २
१. नटुम्मि उ छाउमथिए नाणे'-इति वचनात्। २. शंका-आवरणदेसविगमे जाइं विजंति मइसुयाई णि।
. आवरणसव्वविगमे कहं ताइं न होंति जीवस्स॥ समाधान-मलविद्धमणेर्व्यक्तिर्यथाऽनेकप्रकारतः ।
कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथाऽनेकप्रकारतः॥ यथा जात्यस्य रत्नस्य निःशेषमलहानितः। स्फुटकरूपाऽभिव्यक्तिर्विज्ञप्तिस्तद्वदात्मनः॥