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प्रथम प्रतिपत्ति: मनुष्यों का प्रतिपादन]
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ये मनुष्य संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए।
इन मनुष्यों के सम्बन्ध में २३ द्वारों की विचारणा इस प्रकार हैशरीरद्वार-मनुष्यों के पांचों-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर पाये जाते हैं। अवगाहना-जघन्य से इनकी अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से तीन कोस
संहनन-छहों संहनन पाये जाते हैं। संस्थान-छहों संस्थान पाये जाते हैं।
कषायद्वार-क्रोधकषाय वाले, मानकषाय वाले, मायाकषाय वाले, लोभकषाय वाले, और अकषाय वाले (वीतराग मनुष्य की अपेक्षा) भी होते हैं।
संज्ञाद्वार-चारों संज्ञा वाले भी हैं और नोसंज्ञी भी हैं। निश्चय से वीतराग मनुष्य और व्यवहार से सब चारित्री नोसंज्ञोपयुक्त हैं । लोकोत्तर चित्त की प्राप्ति से वे दसों प्रकार की संज्ञा से युक्त हैं।
लेश्याद्वार-छहों लेश्या भी पायी जाती हैं और अलेश्यी भी हैं। परम शुक्लध्यानी अयोगिकेवली अलेश्यी हैं।
इन्द्रियद्वार-पांचों इन्द्रियों के उपयोग से उपयुक्त भी होते हैं और केवली की अपेक्षा नोइन्द्रियोपयुक्त भी हैं।
समुद्घातद्वार-सातों समुद्घात पाये जाते हैं। क्योंकि मनुष्यों में सब भाव संभव हैं। संजीद्वार-संज्ञी भी हैं और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भी हैं। केवली की अपेक्षा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी हैं। वेदद्वार-तीनों वेद पाये जाते हैं और अवेदी भी होते हैं। सूक्ष्मसंपराय आदि गुणस्थान वाले अवेदी
पर्याप्तिद्वार-पांचों पर्याप्तियां और पांचों अपर्याप्तियां होती हैं। भाषा और मनःपर्याप्ति को एक मानने की अपेक्षा से पांच पर्याप्तियां कही हैं।
दृष्टिद्वार-तीनों दृष्टियाँ पाई जाती हैं। कोई मिथ्यादृष्टि होते हैं, कोई सम्यग्दृष्टि होते हैं और कोई मिश्रदृष्टि होते हैं।
दर्शनद्वार-चारों दर्शन पाये जाते हैं।
१ निर्वाणसाधकं सर्व ज्ञेयं लोकोत्तराश्रयम् ।
संज्ञाः लोकाश्रयाः सर्वाः भवांकुरजलं परं॥