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________________ १०२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हैं। यहाँ के युगलिक अपने अवसान के समय एक युगल (स्त्री-पुरुष) को जन्म देते हैं और ७९ दिन तक उसका पालन-पोषण करते हैं। इनका मरण जंभाई, खांसी या छींक आदि से होता हैं-पीड़ापूर्वक नहीं। ये मरकर देवलोक में जाते हैं। कर्मभूमिक मनुष्य दो प्रकार के हैं-आर्य और म्लेच्छ (अनार्य)। शक, यवन, किरात, शबर, बर्बर, आदि अनेक प्रकार के म्लेच्छों के नाम प्रज्ञापनासूत्र में बताये गये हैं। आर्य दो प्रकार के हैं-ऋद्धिप्राप्त आर्य और अनर्द्धिप्राप्त आर्य। ऋद्धिप्राप्त आर्य छह प्रकार के हैं१. अरिहंत, २. चक्रवर्ती, ३. बलदेव, ४. वासुदेव, ५. चारण और ६. विद्याधर। अनर्द्धिप्राप्त आर्य नौ प्रकार के हैं-१. क्षेत्रआर्य, २. जातिआर्य, ३. कुलआर्य, ४. कर्मआर्य, ५. शिल्पआर्य, ६. भाषाआर्य, ७. ज्ञानआर्य, ८. दर्शनआर्य और ९. चारित्रआर्य। १. क्षेत्रआर्य-साढे पच्चीस देश के निवासी क्षेत्रआर्य हैं। इन क्षेत्रों में तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों बलदेवों और वासुदेवों का जन्म होता हैं। २. जातिआर्य-जिनका मातृवंश श्रेष्ठ हो (शिष्टजनसम्मत हो)। ३. कुलआर्य-जिनका पितृवंश श्रेष्ठ हो । उग्र, भोग, राजन्य आदि कुलआर्य हैं। ४. कर्मआर्य-शिष्टजनसम्मत व्यापार आदि द्वारा आजीविका करने वाले कर्मआर्य हैं । ५. शिल्पआर्य-शिष्टजन सम्मत कलाओं द्वारा जीविका करने वाले शिल्पआर्य हैं। ६. भाषाआर्य-शिष्टजन मान्य भाषा और लिपि का प्रयोग करने वाले भाषाआर्य हैं। सूत्रकार ने अर्धमागधी भाषा और ब्राह्मीलिपि का उपयोग करने वालों को भाषार्य कहा है। उपलक्षण से वे सब भाषाएं और लिपियाँ ग्राह्य हैं जो शिष्टजनसम्मत और कोमलकान्त पदावली से युक्त हों। ७. ज्ञानआर्य-पांच ज्ञानों-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान की अपेक्षा से पांच प्रकार के ज्ञान आर्य समझने चाहिए। ८. दर्शनआर्य-सरागदर्शन और वीतरागदर्शन की अपेक्षा दो प्रकार के दर्शनआर्य समझने चाहिए। ९. चरित्रआर्य-सरागचारित्र और वीतरागचारित्र की अपेक्षा चारित्रआर्य दो प्रकार के जानने चाहिए। सरागदर्शन और सरागचारित्र से तात्पर्य कषाय की विद्यमानता जहाँ तक बनी रहती है वहाँ तक का दर्शन और चारित्र सरागदर्शन और सरागचारित्र जानना चाहिए। कषायों की उपशान्तता तथा क्षीणता के साथ जो दर्शन चारित्र होता हैं वह वीतरागदर्शन और वीतरागचारित्र है। अकषाय रूप यथाख्यातचारित्र दो प्रकार का है-छाद्मस्थिक और कैवलिक।ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के छाद्मस्थिक यथाख्यातचारित्र होता है और तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के कैवलिक यथाख्यातचारित्र होता है। इसलिये यथाख्यातचारित्र-आर्य उक्त प्रकार से दो तरह के हो जाते हैं। ये संक्षेप में आर्य-मनुष्यों का वर्णन हुआ। विस्तृत जानकारी के लिए प्रज्ञापनासूत्र पढ़ना चाहिए। १. प्रज्ञापनासूत्र में विस्तृत जानकारी दी गई है।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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