SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय प्रतिपत्ति : एकोरुक द्वीप का प्रकीर्णक वर्णन] [३१३ एगोरुयदीवे दीवे दुब्भूइयाइ वा कुलरोगाइ गामरोगाइ वा णगररोगाइ वा मंडलरोगाइ वा सिरोवेयणाइ वा अच्छिवेयणाइ वा कण्णवेयणाइवाणक्कवेदणाइ वा दंतवेदणाइ वा नखवेदणाइ वा कासाइ वा सासाइ वा जराइ वा दाहाइ वा कच्छू वा खसराइ वा कुट्ठाइ वा कुडाइ वा दगोयराइ वा अरिसाइ वा अजीरगाइ वा भगंदराइ वा इंदग्गहाइ वा खंदग्गहाइ वा कुमारग्गहाइ वा णागग्गहाइ वा जक्खग्गहाइ वा भूतग्गहाइ वा उव्वेयग्गहाइ वा धणुग्गहाइवा एगाहियगाहाइ वा वेयाहियगहियाइ वा तेयाहियगहियाइ वा चाउत्थगहियाइ वा हिययसूलाइ वा मत्थगसूलाइ वा पाससूलाइ वा कुच्छिसूलाइ वा जोणिसूलाइ वा गाममारीइ वा जाव सन्निवेसमारीइ वा पाणक्खाय जाव वसणभूयमणारिया इ वा ? णो तिणटे समढे । ववगयरोगायंका णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे अइवासाइ वा मंदवासाइ वा सुवुट्ठीइ वा मंदवुट्ठीइ वा उद्धावाहाइ वा पवाहाइ वा दगुब्भेयाइ वा दगुप्पीलाइ वा गामवाहाइ वा जाव सन्निवेसवाहाइ वा पाणक्खय० जाव वसणभूयमणारियाइ वा ? णो तिणढे समटे । ववगयदगोवद्दवा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थिणं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे अयागराइ वा तंबागराइ वा सीसागराइ वा सुवण्णागराइ वा रयणागराइ वा वइरागराइ वा वसुहाराइ वा हिरणवासाइ वा सुवण्णवासाइ वा रयणवासाइ वा वइरवासाइ वा आभरणवासाइ वा पत्तवासाइ वा पुप्फवासाइ वा फलवासाइ वा बीयवासाइ वा मल्लवासाइ वा गंधवासाइ वा वण्णवासाइ वा चुण्णवासाइ वा खीरवुट्ठीइ वा रयणवुट्ठीइ वा हिरणवुट्ठीइ वा सुवण्णवुट्ठीइ वा तहेव जाव चुण्णवुट्ठीइ वा सुकालाइ वा दुकालाइ वा सुभिक्खाइ वा दुब्भिक्खाइ वा अप्पग्धाइ वा महग्याइ वा कयाइ वा महाविक्कयाइवा, सण्णिहीइ वा संचयाइ वा निधीइ वा निहाणाइ वा, चिरपोराणाइ वा पहीणसामियाइ वा पहीणसेउयाइ वा पहीणगोत्तागाराइंवा जाइंइमाइंगामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसन्निवेसेसु सन्निक्खित्ताई चिटुंति ? . नो तिणढे समढे। [१११] (१६) हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में घर और मार्ग हैं क्या ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे मनुष्य गृहाकार बने हुए वृक्षों पर रहते हैं। भगवन् ! एकोरुक द्वीप में ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश हैं ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ ग्राम आदि नहीं हैं। वे मनुष्य इच्छानुसार गमन करने वाले हैं।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy