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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
रहे तो भी वह किसी विमान के पार पहुंच जाता है और किसी विमान को पार नहीं कर सकता हैं । इतने बड़े वह विमान हैं।
जम्बूद्वीप में सर्वोत्कृष्ट दिन में कर्कसक्रान्ति के प्रथम दिन में सूर्य सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन और एक योजन के २१/६० भाग ( इक्कीस साठिया भाग) जितनी दूरी से उदित होता हुआ दीखता है । १ ४७२६३२९/. योजन उसका उदयक्षेत्र है और इतना ही उसका अस्तक्षेत्र है। उदय और अस्तक्षेत्र मिलकर ९४५२६४९. योजन क्षेत्र का परिमाण होता है । यह एक अवकाशान्तर का परिमाण है। यहाँ ऐसे तीन अवकाशान्तर होने से उसका परिमाण अट्ठाईस लाख तीन हजार पांच सौ अस्सी योजन और एक योजन के /.. भाग (२८, ०३, ५८० / ) इतना उस देव के एक पदन्यास का परिमाण होता है। इतने सामर्थ्यवाला कोई देव लगातार एक दिन, दो दिन उत्कृष्ट छह मास तक चलता रहे तो भी उन विमानों में से किन्हीं का पार पा सकता है और किन्ही का नहीं । इतने बड़े वे विमान हैं। स्वस्तिक आदि विमानों की महत्ता के विषय में यह उपमा है।
अर्चि; अर्चिरवर्त आदि की महत्ता के उत्तर में वही सब जानना चाहिए, अन्तर यह है कि यहाँ पांच अवकाशान्तर जितना क्षेत्र उस देव के एक पदन्यास का प्रमाण समझना चाहिए।
काम, कामावर्त आदि विमानों की महत्ता में भी वही सब जानना चाहिए, केवल देव के पदन्यास का प्रमाण सात अवकाशान्तर समझना चाहिए ।
विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजितों के विषय में भी वही जानना चाहिए। अन्तर यह है कि यहाँ नौ अवकाशान्तर जितना क्षेत्र उस देव के एक पदन्यास का प्रमाण समझना चाहिए। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे विमान इतने बड़े हैं ।
॥ प्रथम तिर्यक् उद्देशक पूर्ण ॥
१. जावइ उदेइ सूरो जावइ सो अत्थमेइ अवरेणं । तियपणसत्तनवगुणं काठं पत्तेयं पत्तेयं ॥ १ ॥ सीयालीस सहस्सा दो य सया जोयणाण तेवट्ठा । इगवीस सट्टिभागा कक्खडमाइंमि पेच्छ नरा ॥ २ ॥ २. एवं दुगुणं काठं गुणिज्जए तिपणसत्तमाईहिं ।
आगयफलं च जं तं कमपरिमाणं वियाणाहि ।। ३ ॥ चत्तारि वि सकम्मेहिं, चंडाइगईहिं जंति छम्मासं । तहवि य न जंति पारं केसिंचि सुरा विमाणाइं ॥ ४ ॥