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प्रथम प्रतिपत्ति: गर्भज स्थलचरों का वर्णन]
तात्पर्य यह है कि सम्मूर्छिम महोरग की अवगाहना उत्कृष्ट योजनपृथक्त्व की है जब कि गर्भज महोरग की अवगाहना सौ योजनपृथक्त्व एवं हजार की भी है। शरीरादि द्वारों में भी सर्वत्र गर्भज जलचरों की तरह वक्तव्यता है, केवल अवगाहना, स्थिति और उद्वर्तना द्वारों में अन्तर है ।
चतुष्पदों की उत्कृष्ट अवगाहना छह कोस की है, उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है, चौथे नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक की उद्वर्तना है अर्थात् इस बीच सभी जीवस्थानों में ये मरने के अनन्तर उत्पन्न हो सकते हैं।
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उरपरिसर्पों की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन है । उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है, चौथे नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक की उद्वर्तना है अर्थात् इस बीच सभी जीवस्थानों में ये मर कर उत्पन्न हो सकते हैं।
उरपरिसर्पों की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन है । उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि है और उद्भवर्तना पांचवें नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक की है अर्थात् इस बीच के सभी जीवस्थानों में ये मरकर उत्पन्न हो सकते हैं।
भुजपरिसर्पों की उत्कृष्ट अवगाहना गव्यूतिपृथक्त्व अर्थात् दो कोस से लेकर नौ कोस तक की है। उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि है और उद्वर्तना दूसरे नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक है अर्थात् इस बीच के सब जीवस्थानों में ये उत्पन्न हो सकते हैं ।
खेचर गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भेद सम्मूर्छिम खेचरों की तरह ही हैं। शरीरादि द्वार गर्भज जलचरों की तरह हैं, केवल अवगाहना, स्थिति और उद्वर्तना में भेद है । खेचर गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्कृष्ट अवगाहना धनुषपृथक्त्व है । जघन्य तो सर्वत्र अंगुलासंख्येयभाग प्रमाण है । जघन्य स्थिति भी सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त की है और इनकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। इनकी उद्वर्तना तीसरे नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक के बीच के सब जीवस्थान हैं। अर्थात् इन सब जीवस्थानों में वे मरने के अनन्तर उत्पन्न हो सकते हैं।
किन्हीं प्रतियों में अवगाहना और स्थिति बताने वाली दो संग्रहणी गाथाएँ दी गई हैं जिनका भावार्थ इस प्रकार हैं
'गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचरों की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन की है, चतुष्पदों की छह कोस, उरपरिसर्पों की हजार योजन, भुजपरिसर्पों की गव्यूतपृथक्त्व, पक्षियों की धनुषपृथक्त्व है।
१. जोयणसहस्स छग्गाउयाइं तत्तो य जोयणसहस्सं । गाउयपुहुत्त भुयगे, धणुयपुहुत्तं य पक्खीसु ॥ १ ॥
भम्म पुष्कोडी, तिन्नि य पलिओवमाइं परमाउं । उरभुजग पुव्वकोडी, पल्लिय असंखेज्जभागो य ॥२॥
— वृत्ति