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द्वितीय प्रतिपत्ति : पुरुष का पुरुषरूप में निरन्तर रहने का काल]
[१४९ . मध्यमोपरितन ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति सतावीस सागरोपम की और उत्कृष्ट अट्ठावीस सागरोपम
___ उपरितनाधस्तन ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति अट्ठावीस सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति उनतीस सागरोपम है।
उपरितनमध्यम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति उनतीस सागरोपम की और उत्कृष्ट तीस सागरोपम
है।
उपरितनोपरितन ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति तीस सागरोपम की और उत्कृष्ट इकतीस सागरोपम
विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमान गत देवपुरुषों की जघन्य स्थिति इकतीस सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम है।
सर्वार्थसिद्धविमान के देवों की स्थिति तेतीस सागरोपम की है। यहाँ स्थिति में जघन्य-उत्कृष्ट का भेद नहीं। पुरुष का पुरुषरूप में निरन्तर रहने का काल
५४. पुरिसे णं भंते ! पुरिसेत्ति कालओ केवच्चिरं होई? । गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं। तिरिक्खजोणियपुरिसे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होई ? । गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाई। एवं तं चेव संचिट्ठणा जहा इत्थीणं जाव खहयर तिरिक्खजोणियपुरिसस्स संचिट्ठणा। मणुस्सपुरिसाणं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ?
गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुवकोडिपुहुत्तमब्भहियाइं; धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी।
एवं सव्वत्थ जाव पुव्वविदेह-अवरविदेह कम्मभूमिग मणुस्सपुरिसाणं। अकम्मभूमिग मणुस्सपुरिसाणं जहा अकम्मभूमिग मणुस्सित्थीणं जाव अंतरदीवगाणं।
देवाणं जच्चेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणा जाव सव्वत्थसिद्धगाणं। [५४] हे भगवन् ! पुरुष, पुरुषरूप में निरन्तर कितने काल तक रह सकता है ?
गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से सागरोपम शतपृथक्त्व (दो सौ से लेकर नौ सौ सागरोपम) से कुछ अधिक काल तक पुरुष पुरुषरूप में निरन्तर रह सकता है।
भगवन् ! तिर्यंचयोनि-पुरुष काल से कितने समय तक निरन्तर उसी रूप में रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक। इस प्रकार से जैसे स्त्रियों की संचिट्ठणा कही, वैसे खेचर तिर्यंचयोनिपुरुष पर्यन्त की संचिट्ठणा है। भगवन् ! मनुष्यपुरुष उसी रूप में काल से कितने समय तक रह सकता है।