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तृतीय प्रतिपत्ति: नारकों का पुद्गलपरिणाम ]
तथा तथाविध सातावेदनीयकर्म के विपाकोदय के निमित्त से नैरयिक जीव क्षणभर के लिए साता का अनुभव करते हैं ॥ ६ ॥
नैरयिक जीव कुंभियों में पकाये जाने पर तथा भाले आदि से भिद्यमान होने पर भय से त्रस्त होकर छटपटाते हुए पांच सौ योजन तक ऊपर उछलते हैं । जघन्य से एक कोस और उत्कर्ष से पांच सौ योजन उछलते है। ऐसा भी कहीं पाठ है ' ॥ ७ ॥
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नैरयिक जीवों को, जो रात - दिन नरकों में पचते रहते हैं, उन्हें आँख मूंदने जितने काल के लिए (निमेषमात्र के लिए) भी सुख नहीं है । वहाँ सदा दुःख ही दुःख है, निरन्तर दुःख है ॥ ८ ॥
नैरयिकों के वैक्रिय शरीर के पुद्गल उन जीवों द्वारा शरीर छोड़ते ही हजारों खण्डों में छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाते हैं। इस प्रकार बिखरने वाले अन्य शरीरों का कथन भी प्रसंग से कर दिया है । तैजस कार्मण शरीर, सूक्ष्म शरीर अर्थात् सूक्ष्म नामकर्म के उदय वाले पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों के शरीर, औदारिक शरीर, वैक्रिय और आहारक शरीर भी चर्मचक्षुओं द्वारा ग्राह्य ने होने से सूक्ष्म हैं तथा अपर्याप्त जीवों के शरीर जीवों द्वारा छोड़े जाते ही बिखर जाते हैं। उनके परमाणुओं का संघात छिन्न-भिन्न हो जाता है ॥ ९ ॥
उन नारक जीवों को नरकों में अति शीत, अति उष्णता, अति तृषा, अति भूख, अति भय आदि सैकड़ों प्रकार के दुःख निरन्तर होते रहते हैं ॥ १० ॥
उक्त दस गाथाओं के पश्चात् ग्यारहवीं गाथा में पूर्वोक्त सब गाथाओं में कही गई बातों का संकलन किया गया है जो मूलार्थ से ही स्पष्ट है।
इस प्रकार नारक वर्णन का तृतीय उद्देशक पूर्ण । इसके साथ ही नैरयिकों का वर्णन भी पूरा हुआ ॥
१. 'नेरइयाणुप्पाओ गाउय उक्कोस पंचजोयणसयाई' इति क्वचित् पाठः ।