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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
उन जाइमण्डपादि यावत् श्यामलतामण्डपों में बहुत से पृथ्वीशिलापट्टक हैं, जिनमें से कोई हंसासन के समान है (हंसासन की आकृति वाले हैं) कोई, क्रौंचासन के समान हैं, कोई गरुड़ासन की आकृति के हैं, कोई उन्नतासन के समान हैं, कितनेक प्रणतासन के समान हैं, कितनेक भद्रासन के समान, कितनेक दीर्घासन के समान, कितनेक पक्ष्यासन के समान, कितनेक मकरासन , वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन के समान हैं और कितनेक दिशा-स्वस्तिकासन के समान हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ पर अनेक पृथ्वीशिलापट्टक जितने विशिष्ट चिह्न और नाम हैं तथा जितने प्रधान शयन और आसन हैं-उनके समान आकृति वाले हैं। उनका स्पर्श आजिनक (मृगचर्म), रुई, बूर वनस्पति, मक्खन तथा हंसतूल के समान मुलायम हैं, मृदु हैं। वे सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप )सुन्दर हैं।
. वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियाँ सुखपूर्वक विश्राम करती हैं, लेटती हैं, खड़ी रहती हैं, बैठती हैं, करवट बदलती हैं, रमण करती हैं, इच्छानुसार आचरण करती हैं, क्रीड़ा करती हैं, रतिक्रीड़ा करती हैं। इस प्रकार वे वानव्यन्तर देवियां और देव पूर्व भव में किये हुए धर्मानुष्ठानों का, तपश्चरणादि शुभ पराक्रमों का अच्छे और कल्याणकारी कर्मों के फलविपाक का अनुभव करते हुए विचरते हैं।
१२७. (५) तीसे णं जगतीए उप्पि अंतो पउमवरवेइयाए एत्थ णं एगे महं वणसंडे पण्णत्ते, देसूणाई दो जोयणाई विक्कंभेणं वेदिया समएणं परिक्खेवेणं किण्हे किण्होभासे वणसंडवण्णओ तणमाणिसद्दविहूणो णेयव्यो।
तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसंयति सयंति चिटुंति णिसीयंति तुयटॅति रमंति ललंति कीडंति मोहंति पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणंसुपरिक्कंताणंसुभाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति।
[१२७] (५) उस जगती के ऊपर और पद्मवरवेदिका के अन्दर के भाग में एक बड़ा वनखंड कहा गया है, जो कुछ कम दो योजन विस्तारवाला वेदिका के परिक्षेप के समान परिधि वाला है। जो काला और काली कान्ति वाला है इत्यादि पूर्वोक्त वनखण्ड का वर्णन यहाँ कह लेना चाहिए। केवल यहाँ तृणों और मणियों के शब्द का वर्णन नहीं कहना चाहिए(क्योंकि यहाँ पद्मवरवेदिका का व्यवधान होने से तथाविध वायु का आघात न होने से शब्द नहीं होता है)।
___यहाँ बहुते से वानव्यन्तर देव और देवियां स्थित होते हैं, लेटते हैं, खड़े रहते हैं, बैठते हैं, करवट बदलते हैं, रमण करते हैं, इच्छानुसार क्रियाएँ करते हैं, क्रीडा करते हैं, रतिक्रीड़ा करते हैं और अपने पूर्वभव में किये गये पुराने अच्छे धर्माचरणों का, सुपराक्रान्त तप आदि का और शुभ पुण्यों का, किये गये शुभकर्मों का कल्याणकारी फल-विपाक का अनुभव करते हुए विचरण करते हैं।
विवेचन-पूर्व में पद्मवरवेदिका के बाहर के वनखण्ड का वर्णन किया गया था। इस सूत्र में पद्मवरवेदिका के पहले और जगती के ऊपर जो वनखण्ड है उसका उल्लेख किया गया है। १. क्वचित् मांसलसुघुविसिट्ठसंठाणसंठिया पाठ भी है। वे शिलापट्टक मांसल हैं-कठोर नहीं हैं, अत्यन्त स्निग्ध हैं और विशिष्ट
आकृति वाले हैं।