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________________ ३२६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र [११५] भवनवासी देवों के कितने प्रकार हैं ? भवनवासी देव दस प्रकार के हैं, यथा-असुरकुमार आदि प्रज्ञापनापद में कहे हुए देवों के भेद का कथन करना चाहिए यावत् अनुत्तरोपपातिक देव पांच प्रकार के हैं, यथा-विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध। यह अनुत्तरोपपातिक देवों का कथन हुआ। ११६. कहिणं भंते ! भवणवासिदेवाणं भवणा पण्णत्ता? कहिं णं भंते ! भवणवासी देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए, एवं जहा पण्णवणाए जाव भवणवासइया, तत्थ णं भवणवासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओ वावत्तरि भवणवाससयसहस्सा भवंति त्तिमक्खाया।तत्थ णं बहवे भवणवासी देवा परिवसंति-असुरा नाग सुवन्ना य जहा पण्णवणाए जाव विहरंति। [११६] हे भगवन् ! भवनवासी देवों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! वे भवनवासी देव कहाँ रहते हैं ? हे गौतम ! इस एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटाई वाली रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचे के भाग को छोड़कर शेष एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रमाणक्षेत्र में भवनावास कहे गये हैं आदि वर्णन प्रज्ञापनापद के अनुसार जानना चाहिए। वहाँ भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख भवनावास कहे गये हैं। उनमें बहुत से भवनवासी देव रहते हैं, यथा-असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार आदि वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार कहना चाहिए यावत् दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं। ___११७. कहिं णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता ? पुच्छा ? एवं जहा पण्णवणाठाणपदे जाव विहरंति। कति णं भंते ! दाहिणिल्लाणं असुरकुमारदेवाणंभवणा पुच्छा? एवं जहा ठाणपदे जाव चमरे, तत्थ असुरकुमारिंदे परिवसइ जाव विहरइ। [११७] हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? गौतम ! जैसा प्रज्ञापना के स्थानपद में कहा गया है, वैसा ही कथन यहाँ समझना चाहिए यावत् दिव्य-भोगों को भोगते हुए वे विचरण करते हैं। हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के असुरकुमार देवों के भवनों के संबन्ध में प्रश्न है ? गौतम ! जैसा स्थानपद में कहा, वैसा कथन यहाँ कर लेना चाहिए यावत् असुरकुमारों का इन्द्र चमर वहाँ भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है। विवेचन-देवाधिकार का प्रारम्भ करते हुए देवों के ४ भेद बताये गये हैं-भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। तदनन्तर इनके अवान्तर भेदों के विषय में प्रज्ञापना के प्रथमपद के अनुसार कहने
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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