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तृतीय प्रतिपत्ति :शीतवेदना का स्वरूप]
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पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि विवध कमल की जातियों से युक्त है, जिसके कमलों पर भ्रमर रसपान कर रहे हैं, जो स्वच्छ निर्मल जल से भरी हुई है, जिसमें बहुत से मच्छ और कछुए इधरऊधर घूम रहे हों, अनेक पक्षियों के जोड़ों के चहचहाने के शब्दों के कारण से जो मधुर स्वर से सुनिनादित (शब्दायमान) हो रही है, ऐसी पुष्करिणी को देखकर वह उसमें प्रवेश करता है, प्रवेश करके अपनी गरमी को शान्त करता है, तृषा को दूर करता है, भूख को मिटाता है, तापजनित ज्वर को नष्ट करता है और दाह को उपशान्त करता है। इस प्रकार उष्णता आदि के उपशान्त होने पर वहाँ निद्रा लेने लगता है, आँखें मूंदने लगता है, उसकी स्मृति, रति (आनन्द), धृति (धैर्य) तथा मति (चित्त की स्वस्थता) लौट आती है, वह इस प्रकार शीतल और शान्त होकर धीरे-धीरे वहाँ से निकलता-निकलता अत्यन्त साता-सुख का अनुभव करता है।
इसी प्रकार हे गौतम ! असत्कल्पना के अनुसार उष्णवेदनीय नरकों से निकल कर कोई नैरयिक जीव इस मनुष्यलोक में जो गुड पकाने की भट्टियां, शराब बनाने की भट्टियां, बकरी की लिण्डियों की अग्निवाली भट्टियां, लोहा गलाने की भट्टियां, ताँबा गलाने की भट्टियां, इसी तरह रांगा, सीसा, चांदी, सोना, हिरण्य को गलाने की भट्टियां, कुम्भकार के भट्टे की अग्नि, मूस की अग्नि, ईंटें पकाने के भट्टे की अग्नि, कवेलू पकाने के भट्टे की अग्नि, लोहार के भट्टे की अग्नि, इक्षुरस पकाने की चूल की अग्नि, तिल की अग्नि, तुष की अग्नि, नड-बांस की अग्नि आदि जो अग्नि और अग्नि के स्थान हैं, जो तप्त हैं और तपकर अग्नि तुल्य हो गये हैं, फूले हुए पलास के फूलों की तरह लाल-लाल हो गये हैं, जिनमें से हजारों चिनगारियां निकल रही हैं, हजारों ज्वालाएँ निकल रही हैं, हजारों अंगारे जहाँ बिखर रहे हैं और जो अत्यन्त जाज्वल्यमान हैं, जो अन्दर ही अन्दर धू-धू धधकते हैं, ऐसे अग्निस्थानों और अग्नियों को वह नारक जीव देखे और उनमें प्रवेश करे तो वह अपनी उष्णता को (नरक की उष्णता को) शान्त करता है, तृषा, क्षुधा और दाह को दूर करता है और ऐसा होने से वह वहाँ नींद भी लेता है, आँखें भी मूंदता है, स्मृति, रति, धृति और मति (चित्त की स्वस्थता) प्राप्त करता है और ठंडा होकर अत्यन्त शान्ति का अनुभव करता हुआ धीरे-धीरे वहाँ से निकलता हुआ अत्यन्त सुख-साता का अनुभव करता है। भगवान् के ऐसा कहने पर गौतम ने पूछा कि भगवन् ! क्या नारकों की ऐसी उष्णवेदना है ? भगवान् ने कहा-नहीं, यह बात नहीं है; इससे भी अनिष्टतर उष्णवेदना को नारक जीव अनुभव करते हैं। शीतवेदना का स्वरूप
८९.[५] सीयवेदणिज्जेसुणंभंते ! णरएसु णेरड्य केरिसयंसीयवेयणं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ?
गोयमा ! से जहानामए कम्मारदारए सिया तरुणे जुगवं बलवं जाव सिप्पोवगए एगं महं अयपिंडं दगवारसमाणं गहाय ताविय कोट्टिय जहन्नेणं एगाहं वा दुआरं वा तियाहं वा उक्कोसेणं मासंहणेज्जा, सेणं तं उसिणंउसिणभूतं अयोमएणं संदंसएणंगहाय असब्भावपट्ठवणाए सीयवेदणिज्जेसुणरएसु पक्खिवेज्जा, तं[ उमिसियनिमिसियंतरेणं पुणरवि पच्चुद्धरिस्सामि त्तिक१