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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
तेसिंणं भंते ! जीवाणं सरीरा किंसंठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य। तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते हुंडसंठिया। तत्थ णं जे ते उत्तरवेउव्विया ते वि हुंडसंठिया पण्णत्ता।
चत्तारि कसाया, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि लेसाओ, पंचिंदिया, चत्तारि समुग्याता आइल्ला, सन्नी वि, असन्नी वि। नपुंसकवेदा, छ पजत्तीओ, छ अपजत्तीओ, तिविहा दिट्ठी, तिण्णि दंसणा, णाणी वि अण्णाणी वि, जे णाणी ते णियमा तिन्नाणी, तं जहाआभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिनाणी। जे अण्णाणी ते अत्थेगइया दु-अण्णाणी, अत्थेगइया ति-अण्णाणी।जे यदु-अण्णाणी तेणियमा मइअण्णाणी सुयअण्णाणी योजेतिअण्णाणी ते नियमा मतिअण्णाणी य सुयअण्णाणी य विभंगणाणी य।तिविहे जोगे, दुविहे उवओगे, छद्दिसिं आहारो,ओसन्नं कारणं पडुच्च वण्णओ कालाइं जाव आहारमाहरेंति; उववाओ तिरिय-मणुस्सेहितो, ठिती जहन्नेणं दसवाससहस्साइं, उक्कोसेणं तित्तीसं सागरोवमाइं। दुविहा मरंति, उवट्टणा भाणियव्वा जतो आगता, णवरि संमुच्छिमेसु पडिसिद्धो, दुगतिया, दुआगतिया परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता समणाउसो ! से तं नेरइया।
[३२] नैरयिक जीवों का स्वरूप कैसा है ?
नैरयिक जीव सात प्रकार के हैं, यथा- रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक यावत् अधःसप्तमपृथ्वी-नैरयिक। ये नारक जीव दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त।
भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम! तीन शरीर कहे गये हैं-वैक्रिय, तैजस और कार्मण। भगवन्! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी है ?
गौतम! उनकी शरीरावगाहना दो प्रकार की है, यथा-अवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। इसमें से जो भवधारणीय अवगाहना है वह जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से पाँच सौ धनुष। जो उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना है वह जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन की है।
भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संहनन कैसा है ?
गौतम ! छह प्रकार के संहननों में से एक भी संहनन उनके नहीं है क्योंकि उनके शरीर में न तो हड्डी है, न नाडी है, न स्नायु है। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनाम होते हैं, वे उनके शरीररूप में इकट्ठे हो जाते हैं।
भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संस्थान कौनसा है ?
गौतम! उनके शरीर दो प्रकार के हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। जो भवधारणीय शरीर हैं वे हुंड संस्थान के हैं और जो उत्तरवैक्रिय शरीर हैं वे भी हुंड संस्थान वाले हैं।
उन नैरयिक जीवों के चार कषाय, चार संज्ञाएँ, तीन लेश्याएँ, पांच इन्द्रियाँ, आरम्भ के चार समुद्घात