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प्रथम प्रतिपत्ति :जीवाभिगम का स्वरूप और प्रकार ]
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यह परम्परसिद्ध असंसारप्राप्त-जीवाभिगम का कथन हुआ। यह असंसारप्राप्त जीवाभिगम का कथन पूर्ण हुआ।
विवेचन-अजीवाभिगम का कथन करने के पश्चात् प्रस्तुत सूत्रों में जीवाभिगम का कथन किया गया है। वैसे तो यह सब जीव-अजीव का ही कथन है, किन्तु इन दोनों के साथ जो 'अभिगम' पद लगा हुआ है वह यह बताने के लिए है कि इन जीवों और अजीवों में अभिगमगम्यता धर्म पाया जाता है। अर्थात् ये जीव और अजीव ज्ञान के विषय (ज्ञेय) होते हैं । अद्वैतवादी मानते हैं कि जीव ज्ञान का विषय नहीं होता है। इसका खण्डन करने के लिए 'अभिगम' पद जीव-अजीव के साथ जोड़ा गया है। यदि जीव ज्ञान का विषय न हो तो उसका बोध ही नहीं होगा और स्वरूप को जाने बिना संसार से निवृत्ति एवं मोक्ष में प्रवृत्ति कैसे हो सकेगी? इस तरह शास्त्ररचना का प्रयोजन ही निरर्थक हो जावेगा।
जीवाभिगम क्या है, इस प्रश्न के उत्तर में जीव के भेद बताकर उसका स्वरूप कथन किया गया है। जीवाभिगम दो प्रकार का है-संसारसमापनक अर्थात् संसारवर्ती जीवों का ज्ञान और असंसारसमापनक अर्थात् संसार-मुक्त जीवों का ज्ञान। संसार का अर्थ नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव भवों में भ्रमण करना है। जो जीव उक्त चार प्रकार के भवों में भ्रमण कर रहे हैं वे संसारसमापनक जीव हैं और जो जीव इस भवभ्रमण से छूटकर मोक्ष को प्राप्त हो चुके है, वे असंसारसमापन्नक जीव हैं।
संसारवर्ती जीव हों या मुक्तजीव हों, जीवत्व की अपेक्षा उनमें तुल्यता है। इससे यह ध्वनित होता है कि मुक्त अवस्था में भी जीवत्व बना रहता है। कतिपय दार्शनिक मानते हैं कि जैसे दीपक का निर्वाण हो जाने पर वह लुप्त हो जाता है, उसका अस्तित्व नहीं रहता, इसी तरह मुक्त होने पर जीव का अस्तित्व नहीं रहता। इसी तरह वैशेषिकदर्शन की मान्यता है कि बुद्धि आदि नव आत्मगुणों का उच्छेद होने पर मुक्ति होती है। इन मान्यताओं का इससे खण्डन होता है। मुक्त होने पर यदि जीव का अस्तित्व ही मिट जाता हो, अथवा उसके बुद्धि, सुख आदि आत्मगुण नष्ट हो जाते हों तो ऐसे मोक्ष के लिए कौन विवेकशील व्यक्ति प्रयत्न करेगा ? कौन अपने आपको मिटाने का प्रयास करेगा ? कौन स्वयं को सुखहीन बनाना चाहेगा ? ऐसी स्थिति में मोक्ष का ही उच्छेद हो जावेगा।
अल्पवक्तव्यता होने से प्रथम असंसारप्राप्त जीवों का कथन किया गया है। असंसारप्राप्त, मुक्त जीव दो प्रकार के हैं- अनन्तरसिद्ध और परम्परसिद्ध। '
अनन्तरसिद्ध-सिद्धत्व के प्रथम समय में विद्यमान सिद्ध अनन्तरसिद्ध हैं। अर्थात् उनके सिद्धत्व में समय का अन्तर नहीं है।
परम्परसिद्ध-परम्परसिद्ध वे हैं जिन्हें सिद्ध हुए तीन यावत् अनन्त समय हो चुका हो।
अनन्तर सिद्धों को १५ प्रकार कहे गये हैं-१. तीर्थसिद्ध, २. अतीर्थसिद्ध, ३. तीर्थंकरसिद्ध, ४. अतीर्थंकरसिद्ध, ५. स्वयंबुद्धसिद्ध,६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध,७. बुद्धबोधितसिद्ध, ८. स्त्रीलिंगसिद्ध, ९. पुरुषलिंगसिद्ध, १०. नपुंसकलिंगसिद्ध, ११. स्वलिंगसिद्ध, १२. अन्यलिंगसिद्ध, १३. गृहस्थलिंगसिद्ध, १४. एकसिद्ध और