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जीवाजीवाभिगमसूत्र
गौतमस्वामी ने प्रश्न किया कि भगवन् ! स्त्रीवेद की बन्धस्थिति कितने काल की है ? इसके उत्तर में प्रभु ने फरमाया कि स्त्रीवेद की जघन्य बन्धस्थिति डेढ सागरोपम के सातवें भाग में पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। जघन्य स्थिति लाने की विधि इस प्रकार है
जिस प्रकृति का जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है, उसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम का भाग देने पर जो राशि प्राप्त होती है उसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम करने पर उस प्रकृति की जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति १५ कोडाकोडी सागरोपम है। इसमें ७० कोडाकोडी सागरोपम का भाग दिया तो १५/ कोडाकोडी सागरोपम प्राप्त होता है। छेद्य-छेदक सिद्धान्त के अनुसार इस राशि में १० का भाग देने पर " कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति बनती है। इसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम करने से यथोक्त स्थिति बन जाती है। यह व्याख्या मूल टीका के अनुसार है। पंचसंग्रह के मत से भी यह जघन्यस्थिति का परिमाण है, केवल पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून नहीं करना चाहिए।
कर्मप्रकृति संग्रहणीकार ने जघन्य स्थिति लाने की दूसरी विधि बताई है। २ ज्ञानावरणीयादि कर्मों की अपनी-अपनी प्रकृतियां ज्ञानावरणीयादि वर्ग कहलाती हैं। वर्गों की जो अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति हो उसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जो लब्ध होता है उसमें पल्योपम का सख्येयभाग कम करने से जघन्य स्थिति निकल आती है। यहाँ स्त्रीवेद नोकषायमोहनीयवर्ग की प्रकृति है। उसकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। उसमें सत्तर कोडाकोडी सागरोपम का भाग देने से (शून्य को शून्य से काटने पर) २/, कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति बनती है। अर्थात् दो कोडाकोडी सागरोपम का सातवां भाग, उसमें से पल्योपमासंख्येय भाग कम करने से स्त्रीवेद की जघन्यस्थिति इस विधि से २/ कोडाकोडी सागरोपम में पल्योपमसंख्येय भाग न्यून प्राप्त होती है।
स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम है।
स्थिति दो प्रकार की है-कर्मरूपतावस्थानरूप और अनुभवयोग्य। यहाँ जो स्थिति बताई गई है वह कर्मरूपतावस्थानरूप है। अनुभवयोग्य स्थिति तो अबाधाकाल से हीन होती है। जिस कर्म की जितने कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति होती है उतने ही सौ वर्ष उसकी अबाधा होती है। जैसे स्त्रीवेद को उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम की है तो उसका अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का होता है। अर्थात् इतने काल तक वह बन्धी हुई प्रकृति उदय में नहीं आती और अपना फल नहीं देती। अबाधाकाल बीतने पर ही कर्मदलिकों की रचना होती है अर्थात् वह प्रकृति उदय में आती है। इसको कर्मनिषेक कहा जाता है। अबाधाकाल से हीन कर्मस्थिति ही अनुभवयोग्य होती है।
१. 'सेसाणुकोसाओ मिच्छत्तुक्कोसएण जं लद्धं' इति वचनप्रामाण्यात् । २. वग्गुक्कोसठिईणं मिच्छत्तुकोसगेण णं लखें।
सेसाणं तु जहण्णं पलियासंखेज्जगेणूणं ॥ -कर्मप्रकृति सं.