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________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन] [४३ जीवों की अपेक्षा अत्यन्त अल्प मात्रा में होता है।' १६. योगद्वार-मन, वचन और काया के व्यापार (प्रवृत्ति) को योग कहते हैं। ये योग तीन प्रकार के हैं-मनयोग, वचनयोग, और काययोग। उन तीन योगों में से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के केवल काययोग ही होता है। वचन और मन उनके नहीं होता। १७. उपयोगद्वार-आत्मा की बोधरूप प्रवृत्ति को उपयोग कहते हैं। उपयोग दो प्रकार का हैसाकार-उपयोग और अनाकार-उपयोग। साकार-उपयोग-किसी भी वस्तु के प्रतिनियत धर्म को (विशेष धर्म को) ग्रहण करने का परिणाम साकार उपयोग है। 'आगारो उ विसेसो' कहा गया है। इसलिए पांच ज्ञान और तीन अज्ञान रूप आठ प्रकार का उपयोग साकार उपयोग है। अनाकार-उपयोग-वस्तु के सामान्य धर्म को ग्रहण करने का परिणाम अनाकार-उपयोग है। चार दर्शनरूप उपयोग अनाकार-उपयोग है। साकार-उपयोग के ८ और अनाकार-उपयोग के ४, कुल मिलाकर बारह प्रकार का उपयोग कहा गया है। ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान वाले होने से इन दोनों उपयोगों की अपेक्षा साकार-उपयोग वाले हैं। अचक्षुर्दर्शन उपयोग की अपेक्षा अनाकार-उपयोग वाले हैं। १८. आहारद्वार-आहार से तात्पर्य बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करना है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव द्रव्य से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध का आहार करते हैं। संख्यातप्रदेशी और असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध जीव के द्वारा ग्रहणप्रायोग्य नहीं होते हैं। क्षेत्र से असंख्यात प्रदेशों में रहे हुए स्कन्धों का वे आहार करते हैं। काल से किसी भी स्थिति वाले पुद्गलस्कंधों कों वे ग्रहण करते हैं। जघन्य स्थिति, मध्यम स्थिति या उत्कृष्ट स्थिति किसी भी प्रकार की स्थिति वाले आहार योग्य स्कंधों को ग्रहण करते हैं। भाव से-वे जीव वर्ण वाले, गंध वाले, रस वाले और स्पर्श वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं क्योंकि प्रत्येक परमाणु में एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श तो होते ही हैं। वर्ण की अपेक्षा से स्थानमार्गणा (सामान्य चिन्ता) को लेकर एक वर्ण वाले, दो वर्ण वाले, तीन वर्ण वाले, चार वर्ण वाले और पांच वर्ण वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और भेदमार्गणा की अपेक्षा से २. सर्वनिकृष्टो जीवस्य दृष्टः उपयोग एष वीरेण। सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तानां स च भवति विज्ञेयः॥१॥ तस्मात् प्रभृति ज्ञानविवृद्धिर्दण्टा जिनेन जीवानाम्। लब्धिनिमित्तैः करणै: कायेन्द्रियवाग्मनोदृग्भिः॥२॥
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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