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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
णिसीयंति। तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पुरत्थिमेणं दाहिणेणं पच्चत्थिमेणं उत्तरेणं सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं पुव्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति; तं जहा-पुरत्थिमेण चत्तारि साहस्सीओ जाव उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीओ।
तेणंआयरक्खा सन्नद्धबद्धवम्मियकवया, उप्पीलियसरासणपट्टिया पिणद्धगेवेज्जविमलवरचिंघपट्टा, गहियाउहपहरणा तिणयाइं तिसंधीणि वइरामया कोडीणि धणूई अहिगिज्झ परियाइयकंडकलावा णीलपाणिणो पीयपाणिणो रत्तपाणिणो चावपाणिणो चारुपाणिणो चम्मपाणिणो खग्गपाणिणो दंडपाणिणो पासपाणिणो णीलपीयरत्तचावचारुचम्मखग्गदंडपासवरधरा आयरक्खा रक्खोवगा गुत्ता गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्तेयं पत्तेयं समयओ विणयओ किंकरभूयाविव चिट्ठति।
तए णं से विजए देवे चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं विजयस्सणंदारस्स विजयाए रायहाणीए, अण्णेसिंच बहूणं विजयाए रायहाणीए वत्थव्वगाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणा-ईसर सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयनट्टगीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुइंग-पडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोग-भोगाइं भुंजमाणे विहरइ।
विजयस्स णं भंते ! देवस्स केवतियं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता।
विजयस्सणंदेवस्स सामाणियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? एगं पलिओवमं ठिती पण्णत्ता। एवं महड्डिए एवं महज्जुई एवं महब्बले एवं महायसे एवं महासुक्खे एवं महाणुभागे विजए देवे देवे।
[१४३] तब उस विजयदेव के चार हजार सामानिक देव पश्चिमोत्तर, उत्तर और उत्तरपूर्व में पहले से रखे हुए चार हजार भद्रासनों पर अलग-अलग बैठते हैं । उस विजयदेव की चार अग्रमहिषियाँ पूर्वदिशा में पहले से रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठती हैं। उस विजयदेव के दक्षिणपूर्व दिशा में आभ्यन्तर पर्षदा के आठ हजार देव अलग-अलग पूर्व में ही रखे हुए भद्रासनों पर बैठते हैं।
उस विजयदेव की दक्षिण दिशा में मध्यम पर्षदा के दस हजार देव पहले से रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं । दक्षिण-पश्चिम की ओर बाह्य पर्षदा के बारह हजार देव पहले से रखे अलग अलग भद्रासनों पर बैठते है।
उस विजयदेव के पश्चिम दिशा में सात अनीकधिपति पूर्व में रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं। उस विजयदेव के पूर्व में, दक्षिण में पश्चिम में और उत्तर में सोलह हजार आत्मरक्षक देव पहले से ही रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं। पूर्व में चार हजार आत्मरक्षक देव, दक्षिण में चार हजार