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________________ ततीय प्रतिपत्ति: वैजयंत आदिद्वार] [४२७ आत्मरक्षक देव, पश्चिम में चार हजार आत्मरक्षक देव और उत्तर में चार हजार आत्मरक्षक देव पहले से रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं। __ वे आत्मरक्षक देव लोहे की कीलों से युक्त कवच को शरीर पर कस कर पहने हुए हैं, धनुष की पट्टिका (मुष्ठिग्रहण स्थान) को मजबूती से पकड़े हुए हैं, उन्होंने गले में ग्रैवेयक (ग्रीवाभरण) और विमल सुभट चिह्नपट्ट को धारण कर रखा है। उन्होंने आयुधों और शस्त्रों को धारण कर रखा है, आदि मध्य और अन्त–इन तीन स्थानों में नमे हुए और तीन संधियों वाले और वज्रमय कोटि वाले धनुषों को लिये हुए हैं और उनके तूणीरों में नाना प्रकार के बाण भरे हैं। किन्हीं के हाथ में नीले बाण हैं, किन्हीं के हाथ में पीले बाण हैं, किन्हीं के हाथों में लाल बाण हैं, किन्हीं के हाथों में धनुष है, किन्हीं के हाथों में चारु (प्रहरण विशेष) है, किन्हीं के हाथों में चर्म (अंगूठों और अंगुलियों का आच्छादन रूप) है, किन्हीं के हाथों में दण्ड है, किन्हीं के हाथों में तलवार है, किन्हीं के हाथों में पाश (चाबुक) है और किन्हीं के हाथों में उक्त सब शस्त्रादि हैं। वे आत्मरक्षक देव रक्षा करने में दत्तचित्त हैं, गुप्त हैं (स्वामी का भेद प्रकट कने वाले नहीं हैं) उनके सेतु दूसरों के द्वारा गम्य नहीं हैं, वे युक्त हैं (सेवक गुणापेत हैं), उनके सेतु परस्पर संबद्ध हैंबहुत दूर नहीं हैं। वे अपने आचरण और विनय से मानो किंकरभूत हैं (वे किंकर नहीं हैं, पृथक् आसन प्रदान द्वारा वे मान्य हैं किन्तु शिष्टाचारवश विनम्र हैं)। तब वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिपदों, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा विजयद्वार, विजया राजधानी एवं विजया राजधानी के निवासी बहुत से देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरवर्तित्व, स्वामित्व, भट्टित्व, महत्तरकत्व, आज्ञा-ईश्वर-सेनाधिपतित्व करता हुआ और सब का पालन करता हुआ, जोर से बजाए हुए वाद्यों, नृत्य, गीत, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित, घन मृदंग आदि की ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगता हुआ रहता है। भंते ! विजय देव की आयु कितने समय की कही गई है ? गौतम ! एक पल्योपम की आयु कही है। हे भगवन् ! विजयदेव के सामानिक देवों की कितने समय की स्थिति कही गई है ? गौतम ! एक पल्योपम की स्थिति कही गई है। ___ इस प्रकार वह विजयदेव ऐसी महर्द्धि वाला, महाद्युति वाला, महाबल वाला, महायश वाला महासुख वाला और ऐसा महान् प्रभावशाली है। वैजयंत आदि द्वार १४४. कहिं णं भंते ! जर्बुद्दीवस्स णं दीवस्स वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते? गोयमा!जंबूद्दीवेदीवेमंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं पणयालीसंजोयणसहस्साइंअबाहाए जंबुद्दीवदीवदाहिणपेरन्ते लवणसमुद्ददाहिणद्धस्स उत्तरेणं एत्थ णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते, अटुं जोयणाइं उर्दू उच्चत्तेणं सच्चेव सव्या वत्तव्वया जाव णिच्चे।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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