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[जीवाजीवाभिगमसूत्र १३९.(१) सभाए णं सुधम्माए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं एगे महं सिद्धाययणे पण्णत्ते अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं छ जोयणाई सकोसाइं विक्खभेणं नवजोयणाइँ उड्ढे उच्चत्तेणं जाव गोमाणसिया वत्तव्वया।जा चेव सहाए सुहम्माए वत्तव्वया सा चेव निवसेसा भाणियव्वा तहेवदारा मुहमंडवा पेच्छाघरमंडवा झया थूभा चेइयरुक्खा महिंदज्झया णंदाओ पुक्खरिणीओ। तओ य सुधम्माए जहा पमाणं मणोगुलियाणं गोमाणसीया, धूवयघडीओ तहेव भूमिभागे उल्लोए य जाव मणिफासे।
तस्स णं सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमयी अच्छा। तीसे णं मणिपेढियाए उप्पिं एत्थणंएगे महं देवच्छंदए पण्णत्ते, दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइंदो जोयणाई उड्डूं उच्चत्तेणं सव्वरयणामए अच्छे । तत्थ णं देवच्छंदए अट्ठ सयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्पमाणमेत्ताणं सण्णिक्खित्तं चिट्ठइ।
__तासिं णं जिणपडिमाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-तवणिज्जमया हत्थतला, अंकामयाईणक्खाइं अंतोलोहियक्खपरिसेयाइं कणगमया पादा कणगामया गोप्फा कणगामईओ जंघाओ कणगामया जाणूकणगामया ऊरु कणगामईओ गायलट्ठीओ, तवणिज्जमईओ णाभीओ रिट्ठामईओ रोमराईओ, तवणिज्जमया चुच्चुया तवणिज्जमया सिरिवच्छा, कणगमयाओ बाहाओ कणगमईओ पासाओ कणगमईओगीवाओ रिट्ठामए मंसु, सिलप्पवालमया उट्ठा, फलिहामया दंता, तवणिजमईओ जीहाओ, तवणिज्जमया तालुया कणगमईओ णासाओ अंतोलोहियक्खपरिसेयाओ अंकामयाइं अच्छीणि, अंतोलोहितक्खपरिसेयाई (पुलगमईओ दिट्ठीओ) रिट्ठामईओ तारगाओ रिट्ठामयाइं अच्छिपत्ताइं रिट्ठामईओ भभुहाओ कणगामया कवोला कणगामया सवणा कणगामया णिडाला वट्टा वइरामईओ सीसघडीओ, तवणिज्जमईओ केसंतकेसभूमीओ रिट्ठामया उवरिमुद्धजा।
_[१३९] (१) सुधर्मासभा के उत्तरपूर्व (ईशानकोण) में एक विशाल सिद्धायतन कहा गया है जो साढे बारह योजन का लम्बा, छह योजन एक कोस चौड़ा और नौ योजन ऊँचा है। इस प्रकार पूर्वोक्त सुधर्मासभा का जो वर्णन किया गया है तदनुसार गोमाणसी (शय्या) पर्यन्त सारी वक्तव्यता कहनी चाहिए। वैसे ही द्वार, मुखमण्डप, प्रेक्षागृहमण्डप, ध्वजा, स्तूप, चैत्यवृक्ष, माहेन्द्रध्वज, नन्दा पुष्करिणियाँ, मनोगुलकिाओं का प्रमाण, गोमाणसी, धूपघटिकाएँ, भूमिभाग, उल्लोक (भीतरी छत) आदि का वर्णन यावत् मणियों के स्पर्श आदि सुधर्मासभा के समान कहने चाहिए।
उस सिद्धायतन के बहुमध्य में देशभाग में एक विशाल मणिपीठिका कही गई है जो दो योजन लम्बीचौड़ी, एक योजन मोटी है, सर्व मणियों की बनी हुई है, स्वच्छ है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल
१. कोष्ठकान्तर्गत पाठ वृत्ति में नहीं है।