SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ] गया है कि उनका संस्थान मसूर की दाल जैसा चन्द्राकार संस्थान है । चन्द्राकार मसूर की दाल जैसा संस्थान हुंडसंस्थान ही है। अन्य पाँच संस्थानों में यह आकार नहीं हो सकता। अतः हुंडसंस्थान में ही यह समाविष्ट होता है। जीवों के छह संस्थानों के अतिरिक्त और कोई संस्थान नहीं होता । हुंडसंस्थान का कोई एक विशिष्ट रूप नहीं है। वह असंस्थित स्वरूप वाला है । अतएव सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के मसूर की दाल जैसी आकृति वाला हुंडसंस्थान जानना चाहिए । [३७ ५. कषायद्वार — जिसमें प्राणी कसे जाते हैं, पीड़ित होते हैं वह है कष अर्थात् संसार । जिनके कारण प्राणी संसार में आवागमन करते हैं- भवभ्रमण करते हैं वे कषाय हैं । कषाय ४ हैं – क्रोध, मान, माया और लोभ। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में चारों कषाय पाये जाते हैं। यद्यपि इन जीवों में ये कषाय और इनके बाह्य चिह्न दिखाई नहीं देते किन्तु मन्द परिणाम से उनमें होते अवश्य हैं। अनाभोग से मन्द परिणामों की विचित्रता से वे अवश्य उनमें होते हैं। भले ही दिखाई न दें। ६. संज्ञाद्वार - संज्ञा दो प्रकार की हैं - १. ज्ञानरूप संज्ञा और २. अनुभवरूप संज्ञा । ज्ञानरूप संज्ञा मतिज्ञानादि पाँच ज्ञानरूप है । स्वकृत असातावेदनीय कर्मफल का अनुभव करने रूप अनुभवसंज्ञा है। यहाँ अनुभवसंज्ञा का अधिकार है, क्योंकि ज्ञानरूप संज्ञा की ज्ञानद्वार में परिगणना की गई है। अनुभवसंज्ञा चार प्रकार की है - १. आहारसंज्ञा, २. भयसंज्ञा, ३. मैथुनसंज्ञा और ४ परिग्रहसंज्ञा । आहारसंज्ञा - क्षुधा वेदनीयकर्म से होने वाली आहार की अभिलाषा रूप आत्म-परिणाम आहारसंज्ञा है। भयसंज्ञा - भय वेदनीय से होने वाला त्रासरूप परिणाम भयसंज्ञा है । ' मैथुनसंज्ञा- वेदोदय जनित मैथुन की अभिलाषा मैथुनसंज्ञा है । . परिग्रहसंज्ञा - लोभ से होने वाला मूर्छापरिणाम परिग्रहसंज्ञा है । आहारादि संज्ञा इच्छारूप होने से मोहनीयकर्म के उदय से होती हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में ये चारों संज्ञाएँ अव्यक्त रूप में होती हैं । ७. लेश्याद्वार - जिसके कारण आत्मा कर्मों के साथ चिपकती है वह लेश्या है । १ कृष्णादि द्रव्यों सान्निध्य से आत्मा में होने वाले शुभाशुभ परिणाम लेश्या हैं। जैसे स्फटिक रत्न में अपना कोई कालापीला - नीला आदि रंग नहीं होता है, वह तो स्वच्छ होता है, परन्तु उसके सान्निध्य में जैसे रंग की वस्तु आती है, वह उसी रंग का हो जाता है। वैसे ही कृष्णादि पदार्थों के सान्निध्य से आत्मा में जो शुभाशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं, वह लेश्या है। शास्त्रकारों ने लेश्याओं के छह भेद बताये हैं - १. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, ३. कापोतलेश्या, ४. तेजोलेश्या, ५. पद्मलेश्या और ६. शुक्ललेश्या । १. कृष्णादि द्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy