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________________ ३८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जम्बूफलखादक छह पुरुषों के दृष्टान्त से शास्त्रकारों ने इन लेश्याओं का स्वरूप उदाहरण द्वारा समझाया है। वह इस प्रकार है छह पुरुष रास्ता भूल कर जंगल में एक जामुन के वृक्ष के नीचे बैठकर इस प्रकार विचारने लगेएक पुरुष बोला कि इस पेड़ को जड़मूल से उखाड़ लेना चाहिए। दूसरा पुरुष बोला कि जड़मूल से तो नहीं स्कन्ध भाग काट देना चाहिए। तीसरे ने कहा कि बड़ी-बड़ी डालियाँ काट लेनी चाहिए। चौथा बोलाजामुन के गुच्छों को ही तोड़ना चाहिए। पाँचवां बोला-सब गुच्छे नहीं केवल पके-पके जामुन तोड़ लेने चाहिए। छठा बोला-वृक्षादि को काटने की क्या जरूरत है, हमें जामुन खाने से मतलब है तो सहजरूप से नीचे पड़े हुए चामुन ही खा लेने चाहिए। जैसे उक्त पुरुषों की छह तरह की विचारधाराएँ हुईं, इसी तरह लेश्याओं में भी अलग-अलग परिणामों की धारा होती हैं।' प्रारम्भ की कृष्ण, नील, कापोत-ये तीन लेश्याएँ अशुभ हैं और पिछली तेज, पद्म, शुक्ल ये तीन लेश्याएं शुभ हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में तीन अशुभ लेश्याएं ही पायी जाती हैं । सूक्ष्मों में देवों की उत्पत्ति नहीं होती है । अतएव आदि की तीन लेश्याएँ ही इनमें होती हैं। ८.इन्द्रियद्वार-'इन्दनाद् इन्द्रः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सम्पूर्ण ज्ञानरूप परम ऐश्वर्य का अधिपति होने से आत्मा इन्द्र है। उसका अविनाभावी चिह्न इन्द्रियाँ हैं। वे इन्द्रियाँ पाँच हैं-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय। ये पाँचों इन्द्रियाँ दो-दो प्रकार की हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। द्रव्येन्द्रिय भी दो प्रकार की हैं१. निर्वृत्तिद्रव्येन्द्रिय और २. उपकरणद्रव्येन्द्रिय। निर्वृत्ति का अर्थ है अलग-अलग आकृति की पौद्गलिक रचना। यह निर्वृत्तिइन्द्रिय भी बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार की है। कान की पपड़ी आदि बाह्य निर्वृत्ति है और इसका कोई एक प्रतिनियत आकार नहीं है। मनुष्य के कान नेत्र के आजु-बाजु और भौहों के बराबरी में होते हैं जबकि घोड़े के कान नेत्रों के ऊपर होते हैं और उनके अग्रभाग तीखे होते हैं। __ आभ्यन्तर निर्वृत्तिइन्द्रिय सब जीवों के एकरूप होती है। इसको लेकर ही आगम में कहा गया है कि श्रोत्रेन्द्रिय का आकार कदम्ब के फल के समान, चक्षुरिन्द्रिय का मसूर की चन्द्राकार दाल के समान, घ्राणेन्द्रिय का आकार अतिमुक्तक के समान, जिह्वेन्द्रिय का खुरपे जैसा और स्पर्शनेन्द्रिय का नाना प्रकार का है। स्पर्शनेन्द्रिय १. पंथाओ परिभट्टा छप्पुरिसा अडविमण्झयारंमि। जम्बूतरुस्स हेट्ठा परोप्परं ते विचिंतेति॥१॥ निम्मूल खंधसाला गोच्छे पक्के य पडियसडियाई। जह एएसिं भावा, तह लेसाओ वि णायव्वा ॥२॥
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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