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________________ पूर्व और अंग जैनागमों का प्राचीनतम वर्गीकरण पूर्व और अंग के रूप में समवायांग सूत्र में मिलता है। वहाँ पूर्वो की संख्या चौदह और अंगों की संख्या बारह बताई गई है। जैन वाङ्मय में ज्ञानियों की दो प्रकार की परम्पराएँ उपलब्ध हैं-पूर्वधर और द्वादशांगवेत्ता। पूर्वधरों का ज्ञान की दृष्टि से उच्च स्थान रहा है। जो श्रमण चौदह पूर्वो का ज्ञान धारण करते थे उन्हें श्रुतकेवली कहा जाता था। पूर्वो में समस्त वस्तु-विषयों का विस्तृत विवेचन था अतएव उनका विस्तार एवं प्रमाण बहुत विशाल था एवं गहन भी था। पूर्वो की परिधि से कोई भी सत् पदार्थ अछूता नहीं था। पूर्वो की रचना के विषय में विज्ञों के विभिन्न मत हैं। आचार्य अभयदेव आदि के अभिमतानुसार द्वादशांगी से पहले पूर्वसाहित्य रचा गया था। इसी से उसका नाम पूर्व रखा गया है। कुछ चिन्तकों का मत है कि पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा की श्रुतराशि है। ___पूर्वगत विषय अति गंभीर दुरूह और दुर्गम होने के कारण विशिष्ट क्षयोपशमधारियों के लिए ही वह उपयोगी हुआ। सामान्य जनों के लिए भी वह विषय उपयोगी बने, इस हेतु से अंगों की रचना की गई। जैसा कि विशेषावश्यक भाष्य में कहा है-'यद्यपि भूतवाद या दृष्टिवाद में समग्र ज्ञान का अवतरण है परन्तु अल्पबुद्धि वाले लोगों के उपकार हेतु उससे शेष श्रुत का निर्वृहण हुआ, उसके आधार पर सारे वाङ्मय का सर्जन हुआ। वर्तमान में पूर्व द्वादशांगी से पृथक् नहीं माने जाते हैं । दृष्टिवाद बारहवां अंग है। जब तक आचारांग आदि अंगसाहित्य का निर्माण नहीं हुआ था तब तक समस्त श्रुतराशि पूर्व के नाम से या दृष्टिवाद के नाम से पहचानी जाती थी। जब अंगों का निर्माण हो गया तो आचारांगादि ग्यारह अंगों के बाद दृष्टिवाद को बारहवें अंग के रूप में स्थान दे दिया गया। आगम साहित्य में द्वादश अंगों को पढ़ने वाले और चौदह पूर्व पढ़ने वाले दोनों प्रकार के श्रमणों का वर्णन मिलता है किन्तु दोनों का तात्पर्य एक ही है। चतुर्दशपूर्वी होते थे वे द्वादशांगवित् भी होते थे क्योंकि बारहवें अंग में चौदह पूर्व हैं ही। आगमों का दूसरा वर्गीकरण अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में किया गया है। अंगप्रविष्ट : अंगबाह्य आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का विश्लेषण करते हुए कहा है १. चउद्दसपुव्वा पण्णत्ता तं जहा- उप्पायपुव्व....................तह बिंदुसरं च। दुवालस गणिपिडगे प.तं-आयारे जाव दिविवाए। (क) प्रथमं पूर्व तस्य सर्वप्रवचनात् पूर्व क्रियमाणत्वात् -समवायांग वृत्ति। (ख) सर्वश्रुतात् पूर्व क्रियते इति पूर्वाणि, उत्पादपूर्वादीनि चतुर्दश। -स्थानांग वृत्ति। (ग) जम्हा तित्थकरो तित्थपवत्तणकाले गणधराणं सव्वसुत्ताधारत्तणतो पुव्वं पुवगतसुत्तत्थं भासति तम्हा पुव्वं ति भणिता। -नंदी चूर्णि जइविय भूयावाए सव्वस्स य आगमस्स ओयारो। निज्जूहणा तहा विहु दुम्मेहे पप्प इत्थी य। -विशेषावश्यक भाष्य गाथा,५५१ ३. [१३]
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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