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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
बाद लोकन्त है। सातवीं पृथ्वी में सोलह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है। इसी प्रकार उत्तरदिशा के चरमान्त तक जानना चाहिए।
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा का चरमान्त कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! तीन प्रकार का कहा गया है, यथा-घनोदधिवलय, घनवातवलय और तनुवातवलय। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के दक्षिणदिशा का चरमान्त कितने प्रकार का है।। गौतम तीन प्रकार का कहा गया है, यथा-घनोदधिवलय, घनवातवलय और तनुवातवलय। इसी प्रकार उत्तरदिशा के चरमान्त तक कहना चाहिए।
इसी प्रकार सातवीं पृथ्वी तक की सब पृथ्वियों के उत्तरी चरमान्त तक सब दिशाओं के चरमान्तों के प्रकार कहने चाहिए।
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नरकपृथ्वियों के चरमान्त से अलोक कितना दूर है, यह प्रतिपादित किया है। रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त से अलोक बारह योजन की दूरी पर है। अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा वाले चरमान्त और अलोक के बीच में बारह योजन का अपान्तराल है। इसी तरह रत्नप्रभापृथ्वी के दक्षिण, पश्चिम और उत्तर के चरमान्त से भी बारह योजन की दूरी पर अलोक है। यहाँ दिशा का ग्रहण उपलक्षण है अतः चारों दिशाओं के चरमान्त से भी अलोक बारह योजन की दूरी पर है और बीच में अपान्तराल है।
शर्कराप्रभापृथ्वी के सब दिशाओं और विदिशाओं से चरमान्त से अलोक त्रिभागन्यून तेरह(१२२/) योजन दूरी पर है। अर्थात् चरमान्त और अलोक के बीच इतना अपान्तराल है। .
बालुकाप्रभा के सब दिशा-विदिशाओं के चरमान्त से अलोक पूर्वोक्त त्रिभागसहित तेरह योजन (परिपूर्ण तेरह योजन) की दूरी पर है। बीच में इतना अपान्तराल है।
पंकप्रभा और अलोक के बीच १४ योजन का अपान्तराल है। धूमप्रभा और अलोक के बीच त्रिभागन्यून १५ योजन का अपान्तराल है। तमःप्रभा और अलोक के बीच पूर्वोक्त त्रिभाग सहित पन्द्रह योजन का अपान्तराल है। अधःसप्तमपृथ्वी के चरमान्त और अलोक के बीच परिपूर्ण सोलह योजन का अपान्तराल है।
इस प्रकार अपान्तराल बताने के पश्चात् प्रश्न किया गया है कि ये अपान्तराल आकाशरूप हैं या इनमें घनोदधि आदि व्याप्त हैं ? उत्तर में कहा गया है कि ये अपान्तराल घनोदधि, घनवात और तनुवात से व्याप्त हैं। यहाँ ये घनोदधि आदि वलयाकार हैं, अतएव ये घनोदधिवलय, घनवातवलय और तनुवातवलय कहे जाते हैं। पहले सब नरकपृथ्वियों के नीचे घनोदधि आदि का जो बाहल्यप्रमाण कहा गया है, वह उनके मध्यभाग का है । इसके बाद प्रदेश-हानि से घटते-घटते अपनी-अपनी पृथ्वी के पर्यन्त में तनुतर होकर अपनीअपनी पृथ्वी को वलायाकार वेष्टित करके रहे हुए हैं, इसलिए इनको वलय कहते हैं। इन वलयों का उच्चत्व तो सर्वत्र अपनी-अपनी पृथ्वी के अनुसार ही है। तिर्यग् बाहल्य आगे बताया जायेगा। यहाँ तो अपान्तरालों का विभागमात्र बताया है।