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________________ तृतीय प्रतिपत्ति : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [४०९ तथाविध बादर पुद्गलों को छोड़ते हैं और यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करते है। तदनन्तर दुबारा वेक्रिय समवहत होते हैं और एक हजार आठ सोने के कलश, एक हजार आठ चाँदी के कलश, एक हजार आठ मणियों के कलश, एक हजार आठ सोने-चांदी के कलश, एक हजार आठ सोने-मणियों के कलश, एक हजार आठ चांदी-मणियों के कलश, एक हजार आठ मिट्टी के कलश, एक हजार आठ झारियां, इसी प्रकार आदर्शक, स्थाल, पात्री, सुप्रतिष्ठक, चित्र, रत्नकरण्डक, पुष्पचंगेरियां यावत् लोमहस्तकचंगेरियां, पुष्पपटलक यावत् लोमहस्तपटलक, एक सौ आठ सिंहासन, छत्र, चामर, ध्वजा, (वर्तक, तपःसिप्र, क्षौरक, पीनक), तेलसमुद्गक और एक सौ आठ धूप के कडुच्छुक (धूपाणिये) अपनी विक्रिया से बनाते हैं। उन स्वाभाविक और वैक्रिय से निर्मित कलशों यावत् धूपकडुच्छुकों को लेकर विजया राजधानी से निकलते हैं और उस उत्कृष्ट यावत् उद्धृत (तेज) दिव्य देवगति से तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीप समुद्रों के मध्य से गुजरते हुए जहाँ क्षीरोदसमुद्र है वहाँ आते हैं और वहाँ का क्षीरोदक लेकर वहाँ के उत्पल, कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्रों को ग्रहण करते हैं। वहाँ से पुष्करोसमुद्र की ओर जाते हैं और वहाँ का पुष्करोदक और वहाँ के उत्पल, कमल यावत् शतपत्र, सहस्रपत्रों के लेते हैं । वहाँ से वे समयक्षेत्र में जहाँ भरत-ऐरवत वर्ष (क्षेत्र) है और जहाँ मागध, वरदाम और प्रभास तीर्थ हैं वहाँ आकर तीर्थोदक को ग्रहण करते हैं तथा तीर्थों की मिट्टी लेकर जहाँ गंगा-सिन्धु, रक्ता-रक्तवती महानदियाँ हैं वहाँ आकर उनका जल ग्रहण करते हैं और नदीतटों की मिट्टी लेकर जहाँ क्षुल्ल हिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वत हैं ऊधर आते हैं और वहाँ से सर्व ऋतुओं के श्रेष्ठ सब जाति के फूलों, सब जाति के गंधों, सब जाति के माल्यों (गूंथी हुई मालाओं), सब प्रकार की औषधियों और सिद्धार्थकों (सरसों) को लेते हैं। वहाँ से पद्मद्रह और पुण्डरीकद्रह की ओर जाते हैं और वहाँ से द्रहों का जल लेते हैं और वहाँ के उत्पल कमलों यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लेते हैं। वहाँ से हेमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों में रोहित-रोहितांशा, सुवर्णकूला और रूप्यकूला महानदियों पर आते हैं और वहाँ का जल और दोनों किनारों की मिट्टी ग्रहण करते हैं। वहाँ से शब्दापति और माल्यवंत नाम के वट्टवैताढ्य पर्वतों पर जाते हैं और वहाँ के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों यावत् सर्वोषधि और सिद्धर्थकों के लेते हैं। वहाँ से महाहिमवंत और रुक्मि पर्वतों पर जाते हैं, वहाँ के सब ऋतुओं के पुष्पादि लेते हैं। वहाँ से महापद्मद्रह और महापुंडरीकद्रह पर आते हैं, वहाँ के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं। वहाँ से हरिवर्ष रम्यकवर्ष की हरकान्त-हरिकान्त-नरकान्त-नारिकान्त नदियों पर आते हैं और वहाँ का जल ग्रहण करते हैं । वहाँ से विकटापाति और गंधापाति वट्ट वैताढ्यं पर्वतों पर आते हैं और सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों को ग्रहण करते हैं। वहाँ से निषध और नीलवंत वर्षधर पर्वतों पर आते हैं और सब ऋतुओं के पुष्पादि ग्रहण करते है। वहाँ से तिगिंछद्रह और केसरिद्रह पर आते हैं और वहाँ के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं । वहाँ से पूर्वविदेह और पश्चिम विदेह की शीता, शीतोदा महानदियों का जल और दोनों तट की मिट्टी ग्रहण करते हैं । वहाँ से सब चक्रवर्ती विजयों (विजेतव्यों) के सब मागध, वरदाम और प्रभास नामक तीर्थों पर आते हैं और तीर्थों का पानी और मिट्टी ग्रहण करते हैं। वहाँ से सब वक्षस्कार पर्वतों पर जाते हैं। वहाँ के सब ऋतुओं के फल आदि ग्रहण करते हैं। वहाँ से सब अन्तर नदियों पर आकर वहाँ का जल और तटों की
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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