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प्रस्तावना जीवाजीवाभिगम : एक समीक्षात्मक अध्ययन
जैनागम विश्व-वाङ्मय की अनमोल मणि-मंजूषा है। यदि विश्व के धार्मिक और दार्शनिक साहित्य की दृष्टि से सोचें तो उसका स्थान और भी अधिक गरिमा और महिमा से मण्डित हो उठता है। धार्मिक एवं दार्शनिक साहित्य के असीम अन्तरिक्ष में जैनागमों और जैन साहित्य का वही स्थान है जो असंख्य टिमटिमाते ग्रह-नक्षत्र एवं तारकमालिकाओं के बीच चन्द्र और सूर्य का है। जैनसाहित्य के बिना विश्व-साहित्य की ज्योति फीकी और निस्तेज है। डॉ..हर्मन जेकोबी, डॉ. शुबिंग प्रभृति पाश्चात्य विचारक भी यह सत्य-तथ्य एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि जैनागमों में दर्शन और जीवन का, आचार और विचार का, भावना और कर्तव्य का जैसा सुन्दर समन्वय हुआ है वैसा अन्य साहित्य में दुर्लभ है।
जैनागम ज्ञान-विज्ञान का अक्षय कोष है। अक्षर-देह से वह जितना विशाल है उससे भी अधिक उसका सूक्ष्म एवं गम्भीर चिंतन विशद एवं महान् है। जैनागमों ने आत्मा की शाश्वत सत्ता का उद्घोष किया है और उसकी सर्वोच्च विशुद्धि का पथ प्रदर्शित किया है। साथ ही उसके साधन के रूप में सम्वग् ज्ञान, सम्यक् श्रद्धान और सम्यग् आचरण के पावन त्रिवेणी-संगम का प्रतिवादन किया है। त्याग, वैराग्य और संयम की आराधना के द्वारा जीवन के चरम और परम उत्कर्ष को प्राप्त करने की प्रेरणा प्रदान की है। जीवन के चिरन्तन सत्य को उन्होंने उद्घाटित किया है। न केवल उद्घाटित ही किया है अपितु उसे आचरण में उतारने योग्य एवं व्यवहार्य बनाया है। अपनी साधना के बल से जैनागमों के पुरस्कर्ताओं ने प्रथम स्वयं ने सत्य को पहचाना, यथार्थ को जाना, तदनन्तर उन्होंने सत्य का प्ररूपण किया। अतएव उनके चिन्तन में अनुभूति का पुट है। वह कल्पनाओं की उड़ान नहीं है अपितु अनुभूतिमूलक यथार्थ चिन्तन है। यथार्थदर्शी एवं वीतराग जिनेश्वरों ने सत्य तत्त्व का साक्षात्कार किया और जगत् के जीवों के कल्याण के लिए उसका प्ररूपण किया। यह प्ररूपण और निरूपण ही जैनागम है। यथार्थदृष्टा और यथार्थवक्ता द्वारा प्ररूपित होने से यह सत्य है, निश्शंक है और आप्त वचन होने से आगम है। जिन्होनें रागद्वेष को जीत लिया है वह जिन, तीर्थकर, सर्वज्ञ भगवान् आप्त हैं और उनका उपदेश एवं वाणी ही जैनागम है। क्योंकि उनमें वक्ता के यथार्थ दर्शन एवं वीतरागता के कारण दोष की सम्भावना नहीं होती और न पूर्वापर विरोध तथा युक्तिबाध ही होता है। जैनागमों का उद्भव
जैनागमों के उद्भव के विषय में आवश्यकनियुक्ति में श्री भद्रबाहुस्वामी ने तथा विशेषावश्यकभाष्य में श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने कहा है
'तप, नियम तथा ज्ञानरूपी वृक्ष पर आरूढ अनन्त ज्ञान-सम्पन्न केवलज्ञानी भव्य जनों को उद्बोधित करने
-प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार
१. सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं। २. तमेव सच्चं णिस्संकंजंजिणेहिं पवेइयं। ३. आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः।
-प्रमाणनयतत्त्वालोक