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जैन तत्त्वज्ञान प्रधानतया आत्मवादी है। जीव या आत्मा इसका केन्द्रबिन्दु है। वैसे तो जैन सिद्धान्त ने नौ तत्त्व माने हैं अथवा पुण्य-पाप को आस्रव बन्ध तत्त्व में सम्मिलित करने से सात तत्त्व माने हैं परन्तु वे सब जीव और अजीव कर्म-द्रव्य के सम्बन्ध या वियोग की विभिन्न अवस्थारूप ही हैं। अजीव तत्त्व की प्ररूपणा जीव तत्त्व के स्वरूप को विशेष स्पष्ट करने तथा उससे उसके भिन्न स्वरूप को बताने के लिए है। पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष तत्त्व जीव और कर्म के संयोग-वियोग से होने वाली अवस्थाएँ हैं। अतएव यह कहा जा सकता है कि जैन तत्त्वज्ञान का मूल आत्मद्रव्य (जीव) है। उसका आरम्भ ही आत्मविचार से होता है तथा मोक्ष उसकी अन्तिम परिणति है। प्रस्तुत सूत्र में उसी आत्मद्रव्य की अर्थात् जीव की विस्तार के साथ चर्चा की गई है। अतएव यह जीवाभिगम कहा जाता है। अभिगम का अर्थ है ज्ञान। जिसके द्वारा जीव अजीव का ज्ञान-विज्ञान हो वह 'जीवाभिगम' है। अजीव तत्त्व के भेदों का सामान्य रूप से उल्लेख करने के उपरान्त प्रस्तुत सूत्र का सारा अभिधेय जीव तत्त्व को लेकर ही है। जीव के दो भेद - सिद्ध और संसारसमापन्नक के रूप में बताये गये हैं । तदुपरान्त संसारसमापन्नक जीवों के विभिन्न विवक्षाओं को लेकर किये गये भेदों के विषय में नौ प्रतिपत्तियोंमन्तव्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है। ये नौ ही प्रतिपत्तियां भिन्न भिन्न अपेक्षाओं को लेकर प्रतिपादित हैं अतएव भिन्न भिन्न होने के बावजूद ये परस्पर अविरोधी हैं और तथ्यपरक हैं।
राग-द्वेषादि विभाव परिणतियों से परिणत यह जीव संसार में कैसी कैसी अवस्थाओं का, किन किन रूपों का, किन किन योनियों में जन्म-मरण आदि का अनुभव करता है, आदि विषयों का उल्लेख इन नौ प्रतिपत्तियों में किया गया है। त्रस - स्थावर के रूप में, स्त्री-पुरुष नपुंसक के रूप में, नारक - तिर्यञ्च मनुष्य और देव के रूप में, एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय के रूप में, पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय के रूप में तथा अन्य अपेक्षाओं से अन्य - अन्य रूपों में जन्म-मरण करता हुआ वह जीवात्मा जिन जिन स्थितियों का अनुभव करता है, उनका सूक्ष्म वर्णन किया गया है। द्विविध प्रतिपत्ति में त्रस - स्थावर के रूप में जीवों के भेद बताकर १ शरीर, २ अवगाहना, ३ संहनन, ४ संस्थान, ५ कषाय, ६ संज्ञा, ७ लेश्या, ८ इन्द्रिय, ९ समुद्घात, १० संज्ञी असंज्ञी, ११ वेद, १२ पर्याप्ति - अपर्याप्ति, १३ दृष्टि, १४ दर्शन, १५ ज्ञान, १६ योग, १७ उपयोग, १८ आहार, १९ उपपात, २० स्थिति, २१ समवहत - असमवहत, २२ च्यवन और २३ गति - आगति- इन २३ द्वारों से उनका निरूपण किया गया है। इसी प्रकार आगे की प्रतिपत्तियों में भी जीव के विभिन्न द्वारों को घटित किया गया है। स्थिति, संचिट्ठणा (कायस्थिति), अन्तर और अल्पबहुत्व द्वारों का यथासंभव सर्वत्र उल्लेख किया गया है। अन्तिम प्रतिपत्ति में सिद्ध संसारी भेदों की विविक्षा न करते हुए सर्वजीव के भेदों की प्ररूपणा की गई है।
प्रस्तुत सूत्र में नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों के प्रसंग में अधोलोक, तिर्यक्लोक और ऊर्ध्वलोक का निरूपण किया गया है। तिर्यक्लोक के निरूपण में द्वीप समुद्रों की वक्तव्यता, कर्मभूमि अकर्मभूमि की वक्तव्यता, वहाँ की भौगोलिक और सांस्कृतिक स्थितियों का विशद विवेचन भी किया गया है जो विविध दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है इस प्रकार यह सूत्र और इसकी विषय-वस्तु जीव के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी देती है, अतएव इसका जीवभिगम नाम सार्थक है। यह आगम जैन तत्त्वज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है ।
प्रस्तुत सूत्र का मूल प्रमाण ४७५० (चार हजार सात सौ पचास) ग्रन्थाग्र है । इस पर आचार्य मलयगिरि ने १४००० (चौदह हजार) ग्रन्थाग्र प्रमाण वृत्ति लिखकर इस गम्भीर आगम के मर्म को प्रकट किया है । वृत्तिकार ने अपने बुद्धि-वैभव से आगम के मर्म को हम साधारण लोगों के लिए उजागर कर हमें बहुत उपकृत किया है।
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