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प्रथम प्रतिपत्ति: गर्भज जलचरों का वर्णन]
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और असंख्य वर्षायु वाले मनुष्यों को छोड़कर शेष सब मनुष्यो से भी आकर उत्पन्न होते हैं। ये सहस्रार तक के देवलोकों से आकर भी उत्पन्न होते हैं।
इनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटी की है। ये दोनों प्रकार के समवहत, असमवहत मरण से मरते हैं। ये यहाँ से मर कर सातवीं नरक तक, सब तिर्यंचों और मनुष्यों में और सहस्रार तक के देवलोक में जाते हैं। ये चार गति वाले, चार आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह (गर्भज) जलचरों का कथन हुआ।
विवेचन-गर्भज जलचरों के भेद प्रज्ञापना के अनुसार जानने का निर्देश दिया गया है। ये भेद मत्स्य, कच्छप आदि पूर्व के सूत्र के विवेचन में बता दिये हैं। पर्याप्त, अपर्याप्त का वर्णन भी पूर्ववत् जानना चाहिए। शरीर आदि द्वार सम्मूर्छिम जलचरों के समान जानने चाहिए; जो अन्तर है, वह इस प्रकार जानना चाहिए
शरीरद्वार में गर्भज जलचरों में चार शरीर पाये जाते है।
इनमें वैक्रियशरीर भी पाया जाता है । अतएव औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण-ये चार शरीर पाये जाते है।
अवगाहनाद्वार में इन गर्भज जलचरों की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन की जाननी चाहिए।
संहननद्वार में इन गर्भज जलचरों में छहों संहनन सम्भव हैं । वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त ये छह संहनन होते है। इनकी व्याख्या पहले २३ द्वारों की सामान्य व्याख्या के प्रसंग में की गई है।
संस्थानद्वार-इन जीवों के शरीरों के संस्थान छहों प्रकार के सम्भव हैं । वे छह संस्थान इस प्रकार हैं--समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, सादिसंस्थान, वामनसंस्थान, कुब्जसंस्थान और हुंडसंस्थान। इनकी व्याख्या पहले सामान्य द्वारों की व्याख्या के प्रसंग में कर दी गई हैं। ३
लेश्याद्वार में छहों लेश्याएं हो सकती हैं। शुक्ललेश्या भी सम्भव है। समुद्घातद्वार में आदि के पांच समुद्घात होते हैं। वैक्रियसमुद्घात भी सम्भव है। संज्ञीद्वार में ये संज्ञी ही होते हैं असंज्ञी नहीं । वेदद्वार में तीनों वेद होते हैं। इनमें नपुंसक वेद के
१. वज्जरिसहनारायं पढमं बीयं च रिसहनारायं।
मारायमद्धनाराय कीलिया तह य छेवढें ॥१॥ रिसहो य होइ पट्टी, वज्जं पुण कीलिया मुणेयव्या।
उसओ मक्कडबंधो, नारायं तं वियाणाहि ॥२॥ २. 'साची' ऐसी भी पाठ है। साची का अर्थ शाल्मलि वृक्ष होता है। वह नीये से अतिपुष्ट होता है, ऊपर से तदनुरूप नहीं होता। ३. समचउरंसे नग्गोहमंडले साइखुज्जवामणए।
हुंडे वि संठाणे जीवाणं छ मुणेयव्वा ॥१॥