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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
अतिरिक्त स्त्रीवेद और पुरुषवेद भी होता है।
पर्याप्तिद्वार में छहों पर्याप्तियां और छहों अपर्याप्तियाँ होती हैं। वृत्तिकार ने पांच पर्याप्तियाँ और पांच अपर्याप्तियाँ कही है सो भाषा और मन की एकत्व-विवक्षा को लेकर समझना चाहिए।
दृष्टिद्वार में तीनों (मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, और सम्यग्मिथ्यादृष्टि) होते हैं। दर्शनद्वार में इन जीवों में तीन दर्शन हो सकते हैं, क्योंकि किन्हीं में अवधिदर्शन भी हो सकता है। ज्ञानद्वार में ये तीन ज्ञान वाले भी हो सकते हैं। क्योंकि इनमें से किन्ही को अवधिज्ञान भी हो सकता
हैं
अज्ञानद्वार में तीन अज्ञान वाले भी हो सकते हैं। क्योंकि किन्हीं को विभंगज्ञान भी हो सकता है।
अवधिज्ञान और विभंगज्ञान में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को लेकर भेद हैं। सम्यग्दृष्टि का अवधिज्ञान होता है और मिथ्यादृष्टि का वही ज्ञान विभंगज्ञान कहलाता हैं।'
उपपातद्वार में ये जीव सातों नारकों से, असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंचों को छोड़कर शेष सब तिर्यंचों से, अकर्मभूमिज अन्तीपज और असंख्यात वर्ष की आयु वालों को छोड़कर शेष कर्मभूमि के मनुष्यों से और सहस्रार नामक आठवें देवलोक तक के देवों से आकर उत्पन्न होते हैं। इससे आगे के देव इनमें उत्पन्न नहीं होते।
स्थितिद्वार में इन जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटी की है। उद्धर्तनाद्वार में सहस्रार देवलोक से आगे के देवों को छोड़कर शेष सब जीवस्थानों में जाते हैं।
अतएव गति-आगति द्वार में ये चार गति वाले और चार आगति वाले हैं। ये प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह गर्भज जलचरों का वर्णन हुआ। भज स्थलचरों का वर्णन
३९. से किं तं थलयरा? थलयरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहाचउप्पदा य परिसप्पा य। से किं तं चउप्पया?
चउप्पया चउव्विहा पण्णत्ता,तं जहा-एगखुरा सो चेव भेदो जावजे यावन्ने तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्ता य अपजत्ता य। चत्तारि सरीरा, ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेग्जइभागं उक्कोसेणं छ गाउयाइं।ठिती उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई नवरं उववद्वित्ता नेरइएसुचउत्थपुढविं गच्छंति, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया, चउआगतिया,
१. सम्यग्दृष्टेनिं मिथ्यादृष्टेर्विपर्यासः ।
-वृत्ति