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________________ ९०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सण्णी, णो असण्णी, तिविहा वेदा, छप्पजत्तीओ, छअप्पजत्तीओ, दिट्ठी तिविहा वि, तिण्णि दसणा, णाणी, वि अण्णाणी वि, जे णाणी ते अत्थेगइया दुणाणी, अत्थेगइया तिन्नाणी; जे दुन्नाणी ते णियमा आभिणिबोहियणाणी य सुयणाणी य। जे तिणाणी ते नियमा आभिनिबोहियणाणी,सुयणाणी,ओहिणाणी।एवं अण्णाणि वि।जोगेतिविहे, उवओगे दुविहे, आहारो छद्दिसिं। उववाओ नेरइएहिं जाव अहे सत्तमा, तिरिक्खजोणिएहिं सव्वेहिं असंखेजवासाउयवजेहिं, मणुस्सेहिं अकम्मभूमग अंतरदीवग असंखेजवासाउयवज्जेहिं, देवेहिं जाव सहस्सारो। ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी। दुविहा वि मरंति। अणंतरं उव्वट्टित्ता नेरइएसुजाव अहेसत्तमा, तिरिक्खजोणिएसुमणुस्सेसु सव्वेसु देवेसु जाव सहस्सारो, चउगतिया, चउआगतिया परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, से तं जलयरा। [३८] (गर्भज) जलचर क्या हैं ? ये जलचर पांच प्रकार के हैं-मत्स्य, कच्छप, मगर, ग्राह और सुंसुमार। ___इन सबके भेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार कहना चाहिए यावत् इस प्रकार के गर्भज जलचर संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । हे भगवन् ! इन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! इनके चार शरीर कहे गये हैं, जैसे औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण। इनकी शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से हजार योजन की है। इन जीवों के छह प्रकार के संहनन होते हैं, जैसे कि वज्रऋषभनाराचसंहनन, ऋषभनाराचसंहनन, नाराचसंहनन अर्धनाराचसंहनन, कीलिकासंहनन और सेवार्तसंहनन । इन जीवों के शरीर के संस्थान छह प्रकार के हैं समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, सादिसंस्थान, कुब्जसंस्थान, वामनसंस्थान और हुंडसंस्थान। इन जीवों के सब कषाय, चारों संज्ञाएँ, छहों लेश्याएँ, पांचों इन्द्रियाँ, शुरू के पांच समुद्घात होते हैं। ये जीव संज्ञी होते हैं, असंज्ञी नहीं। इनमें तीन वेद, छह पर्याप्तियाँ, छह अपर्याप्तियाँ, तीनों दृष्टियां, तीन दर्शन, पाये जाते हैं। ये जीव ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं। जो ज्ञानी हैं उनमें कोई दो ज्ञान वाले हैं और कोई तीन ज्ञान वाले। जो दो ज्ञान वाले हैं वे मतिज्ञान वाले और श्रुतज्ञान वाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे नियम से मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी हैं। इसी तरह अज्ञानी भी। इन जीवों में तीन योग, दोनों उपयोग होते हैं। इनका आहार छहों दिशाओं से होता है। ये जीव नैरयिकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। यावत् सातवीं नरक से भी आकर उत्पन्न होते हैं। असंख्य वर्षायु वाले तिर्यंचों को छोड़कर सब तिर्यंचों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। अकर्मभूमि, अन्तर्वीप
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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