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________________ तृतीय प्रतिपत्ति : उपपात] [२३१ नरकावासों में विकार ८५. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा किंमया ? गोयमा! सव्ववइरामया पण्णत्ता; तत्थणंणरएसुबहवे जीवाय पोग्गला य अवक्कमंति विउक्कमंति चयंति उववज्जति सासया णं ते णरगा दव्वट्ठयाए; वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जेवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासया। एवं जाव अहे सत्तमाए। [८५] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास किसके बने हुए हैं ? गौतम ! वे नरकावास सम्पूर्ण रूप से वज्र के बने हुए हैं। उन नरकावासों में बहुत से (खरबादर पृथ्वीकायिक) जीव और पुद्गल च्यवते हैं और उत्पन्न होते हैं, पुराने निकलते हैं और नये आते हैं। द्रव्यार्थिकनय से वे नरकावास शाश्वत हैं परन्तु वर्णपर्यायों से, गंधपर्यायों से, रसपर्यायों से और स्पर्शपर्यायों से वे अशाश्वत हैं। ऐसा अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में प्रश्न है कि रत्नप्रभादि के नरकावास किंमय हैं अर्थात् किस वस्तु के बने हुए हैं ? उत्तर में कहा गया है कि वे सर्वथा वज्रमय हैं अर्थात् वज्र से बने हुए हैं। उनमें खरबादर पृथ्वीकाय के जीव और पुद्गल च्यवते हैं और उत्पन्न होते हैं। अर्थात् पहले वाले जीव निकलते हैं और नये जीव आकर उत्पन्न होते हैं। इसी तरह पुद्गल भी कोई च्यवते हैं और कोई नये आकर मिलते हैं। यह आनेजाने की प्रक्रिया वहाँ निरन्तर चलती रहती है। इसके बावजूद भी रत्नप्रभादि नरकों की रचना शाश्वत है। इसलिए द्रव्यनय की अपेक्षा से वे नित्य हैं, सदाकाल से थे, सदाकाल से हैं और सदाकाल रहेंगे। इस प्रकार द्रव्य से शाश्वत होते हुए भी उनमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श बदलते रहते हैं, इस अपेक्षा से वे अशाश्वत हैं। जैनसिद्धान्त विविध अपेक्षाओं से वस्तु को विविधरूप में मानता है। इसमें कोई विरोध नहीं है। अपेक्षा भेद से शाश्वत और अशाश्वत मानने में कोई विरोध नहीं है। स्याद्वाद सर्वथा सुसंगत सिद्धान्त है। उपपात ८६.[१] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया कओहिंतो उववजंति ? किं असण्णीहिंतो उववजंति, सरीसिवेहिंतो उववज्जति पक्खीहिंतो उववजंति चउप्पएहितो उववजंति उरगेहिंतो उववज्जति इत्थियाहिंतो उववजंति मच्छमणुएहिंतो उववज्जति ? गोयमा ! असण्णीहिंतो उववजंति जाव मच्छमणुएहितो वि उववज्जंति, असण्णी खलु पढमं दोच्चं च सरीसिवा ततिय पक्खी। सीहा जंति चउत्थिं उरगा पुण पंचमिं जंति ॥१॥ छट्टिं च इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तमि जंति। जाव अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइया णो असण्णीहिंतो उववज्जंति जाव णो इत्थियाहिंतो उववजंति, मच्छमणुस्सेहिंतो उववजंति। १. सेसासु इमाए गाहाए अणुगंतव्वा, एवं एतेणं अभिलावेणं इमा गाथा घोसेयव्वा।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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